खुदकुशी की वजह!

कोई ख़ुद को कभी यूं ही एक दिन यकायक ख़त्म नहीं करता.

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वो धीमे धीमे बढ़ रहा होता है उस तरफ, और फिर अचानक एक दिन दहलीज़ पर आ खड़ा होता है, ख़ुद इस बात से बेख़बर कि वो इतनी दूर निकल आया है ज़िंदगी से और इतने नज़दीक क़ज़ा के. और फिर वो ग़मगीन और रंजीदा ‘दिन’ अपने लम्हों में अपनी तहरीर ख़ुद लिखता है, उस शख़्स के होश-ओ-इख़्तियार के बाहर.

पर कोई ‘क्यों’ इस तरह क़तरा क़तरा खाली हो कर उस ‘ख़त्म’ होने के दिन तक जाता है? दरअसल इसकी वजहें दो ‘क़िस्म’ की होती हैं. पहली क़िस्म – “बदक़िस्मती, बदहाली, बीमारी और बेचारगी” और दूसरी क़िस्म -“बेसहारापन, बेतरतीबी, बेताबी और बेवक़ूफ़ी”. आइये! पहली क़िस्म की वजहों से बचने की दुआ करें, और  

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…दूसरी क़िस्म की वजहों से बचने (और बचाने) की कोशिशें.

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Moving out.

Sometimes, the road ahead is so stuck, that to move ahead, you have to move out.     

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It’s never easy to walk away. It takes far too much out of you to bear with a grin or put up a brave front. While you feel pain of leaving it behind, you also feel guilt of letting a part of yourself down. But then, sometimes, that’s the only way left to stay afloat.

It is not easy. Was never meant to be! So be ready for some leftover pain never to disappear completely. Moreover, there is responsibility attached – if move out you must, do it properly. Do not shortchange anyone or leave a mess behind. Do it with grace.

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And yes! Do not be too harsh on yourself. It’s fine if you gave your best.

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दुनियादारी!

इतना कमाइये कि कमी ना हो, इतना नहीं कि…कमीना होना पड़े.

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ग़लत ना समझें! पैसा बिला-शुबा एक अहम शय है! ज़रुरत के ‘वक़्त’ और ‘मुताबिक़’ ना हो तो इंसान कुछ भी बनने के लिए मजबूर हो जाता है. पर यहां हम ज़रुरत की नहीं, पैसे से ‘अक़ीदत’ की बात कर रहे हैं, और इसी बहाने दुनिया की साज़िश की. इसे ऐसे समझिये! – इंसान को उसकी मर्ज़ी और फ़ितरत के ख़िलाफ काम कराना टेढ़ी खीर थी. पर दुनिया को ऐसा कराने की ज़रुरत थी. अब क्या किया जाए?

तो दुनिया ने एक ज़बरदस्त दांव खेला. उसने क़ामयाबी के तसव्वुर को दो चीज़ों से जोड़ दिया – ‘पैसा’ और ‘ओहदा’. और फिर इन दो की अहमियत को ऊंचा उठाना शुरु किया – इतना ऊंचा कि आप इस क़दर मुतासिर हो जाएं कि इनके लिए वो सब करने को तैयार हो जाएं जो आपकी मर्ज़ी के दरमियाँ नहीं आता या आपकी फ़ितरत से मेल नहीं खाता – दिल से नहीं भी तो औरों को ही देख कर. अब समझे चाल! 

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इसीलिए इन दोनों से इतनी ही अक़ीदत रखिये कि…गरेबाँ गिरवी न हो जाए.

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Loyalty on royalty.

In life, loyalties can shift pretty quickly.     

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Most people think that ‘status’ of any form of relationship depends entirely on what two persons feel ‘about’ it and bring ‘to’ it. What they don’t ‘factor in’ is the impact of a crucial intervening factor – circumstances. Yes, in a relationship, what goes on ‘around’ the two makes the decisive difference!

And who can control everything about everything around them? That’s why all relationships, by nature, are vulnerable and variable. So what to do when storm of situations belittles strength of sentiments? Well, just hold your end of the rope as long and as tightly as you can, and hope (yet not expect) that…

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…the other one reciprocates. 🙂 

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Get. Set. Go. And then…come back!

Nothing that you will build will stay forever, so relax.    

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I am a sucker for greatness, and believe me, there is no better sight in the world than to see someone chasing it. It is pure unadulterated delight to see an aspiring soul… driven by razor-sharp focus… running full throttle and defying the laws postulated by the no-shows. Aha! The stuff the legends are made of!

Yet, I am an equal believer in ‘respect for impermanence and acceptance of transience’, and firmly hold that “You can’t let fire in the belly burn the belly”. So it’s important to love the chase and still not get obsessed with it. The reason is simple – every chase is merely a blink in the eternal flow of limitlessness.

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So, give your best…storm the chase, and yet…do not forget to have fun! 🙂

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एक शख़्स का अहद

हर परिवार के अपने अलग मसले होते हैं जो कोई बाहर वाला कभी समझ नहीं सकता.

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हर परिवार, चाहे वो जैसा भी दिखे, अपनी परेशानियों से जूझ रहा होता है…अपने पेंचों में उलझ रहा होता है…और अपनी हक़ीक़त को बर्दाश्त करने की कोशिश कर रहा होता है. लोग रिश्तों में आ सकने वाले खिंचाव, आ रहे तनाव, या पहले से मौजूद दरारों को या तो भरने की या ‘उभरने न देने’ की कोशिश कर रहे होते हैं. पर यक़ीन मानिये परिवार का ‘सच’ सिर्फ ये नहीं होता.

परिवार का सच होता है उस एक शख़्स का अहद भी जो ये तय कर के बैठा है कि वो उस परिवार को टूटने नहीं देगा. वो क़ुर्बानियां देगा, मुश्किलें उठाएगा, नुकसान भरेगा, इल्ज़ाम सहेगा, तरतीब बिठाएगा, तरक़ीब निकालेगा – वो सब करेगा जो वो कर सकेगा जब तक उसके लिए ज़रा भी मुमक़िन है. और अगर वो फिर भी नाक़ामयाब रहा तो भी नाउम्मीद नहीं होगा.   

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और एक परिवार को बनाये रखने के लिए वो ‘एक शख़्स’ थोड़ा थोड़ा…’हर शख़्स’ में होना ज़रुरी है.

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साहिर होने की सहर!

अपने काम के माक़ूल न केवल खुद में हुनर डालिये बल्कि अपना मिज़ाज भी ढालिये. 

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मेरा हमेशा से मानना रहा है कि इंसान की क़ामयाबी का राज़ “उसे क्या आता है” से ज़्यादा “वो कैसा है” में छुपा होता है. ग़लत मत समझिएगा, मैं इल्म और महारत की अहमियत को कम नहीं आंक रहा. उनके बिना तो कामयाबी की तरफ कदम बढ़ाना भी मुमकिन नहीं. मैं तो सिर्फ ये कह रहा हूं कि कामयाबी के सफर में एक हद के बाद काबिलियत काफ़ी नहीं होती.

और जो वो ‘कुछ और’ लगता है वो इंसान को न कोई उस्ताद दे सकता है न कोई तालीम! वो ख़ूबी उसे खुद परवान चढ़ानी पड़ती है. और जितनी ये ख़ूबी परवान चढ़ती है उतनी परवाज़ बढ़ती है. ये ख़ूबी होती है अपने काम के हिसाब से सबसे मुफ़ीद ‘तासीर और मिज़ाज’ अपने अंदर लाना. जो ये कर लेता है वो क़ामयाबी की सरहद के पार ‘नायाबी’ की सरहद में पहुंचने लगता है.      

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और फिर सफ़र की उस नई सहर में ज़ाहिर होता है नक़्शा ‘माहिर’ से ‘साहिर’ होने का.

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Showman need not apply!

Professional repute gets built, not with a showman’s swag, but with a surgeon’s solidity.      

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Some people still believe in ‘fake it until you make it’. They still reckon they can weave the magic with their persona & mannerisms to enter the ‘halls of fame’. They still assume that ‘sophistication & style’ can compensate for lack of ‘substance & sincerity’. Problem is – they confuse ‘popularity’ for ‘repute.

With showmanship or chicanery, you can at best gain popularity. However, reputation is an altogether different virtue. You got to have what it takes, otherwise you turn out to be a shooting star with no luck for itself. After all, it’s not for nothing that they say – “Form is temporary but class is permanent”.

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So work for real! Or else, you will be damned to live in a constant ‘fear of being found out’.

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नाराज़गी या…?

जब लोग आपको बेवजह ‘कमतर महसूस कराने’ की कोशिश करें तो उन्हें माफ़ कर दीजिये.

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इनमें से कुछ लोग दरअसल अंदर से बहुत अकेले होंगे – इतने अकेले कि वो आपको तकलीफ़ पहुंचाने की कोशिश के ज़रिये भी आपका ध्यान ही खींचना चाहेंगे ताकि कुछ देर के लिए ही सही पर अपना वजूद महसूस कर पाएं. फिर कुछ लोग दरअसल अंदर से बहुत दुखी होंगे – इतने कि अब उनके पास सुख का एकमात्र ज़रिया बचा होगा ‘किसी और को दुख पहुंचा कर लुत्फ़ लेना’.

इनमें से कुछ लोग दरअसल अंदर से बहुत हताश होंगे – इतने हताश कि अपनी नाक़ामयाबी या मामूलीपन की टीस कम करने का सबसे आसान तरीक़ा उन्हें ‘किसी और को नीचे खींचना’ ही लगेगा. और फिर कुछ लोग अंदर से बहुत नाराज़ होंगे क्योंकि उनके हिसाब से दुनिया ने उन्हें वो नहीं दिया जो वो पाने का हक़ रखते थे, इसलिए वो किसी और के लिए ‘कुछ पाना’ मुश्किल करेंगे.   

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अब आप ही बताइये – ये लोग आपकी नाराज़गी के हक़दार हैं या…हमदर्दी के?

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You know me! Right?

Never conclude that you know a person well enough.     

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Human mind is ‘a puzzle that keeps changing’. Moreover, functionally, it is ‘a cylinder with a shifting base’. On the top of it, a person also has three different identity-spheres – a public persona, a personal profile and a ‘private self’. Whoa! That renders every person a ‘variable’ and never a ‘constant’.

So irrespective of the number of years you have known a person for or the amount of time you spend together, the fact is that ‘you never really know a person well enough’. It surely is like an iceberg and you can only see the tip. But then what does it mean for us in intrapersonal & interpersonal terms?

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It means – “Always see people with a certain curiosity”. It helps.

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