साथ की रोशनी

साथ चलने से रास्ता आसान नहीं होता पर कम से कम सुनसान नहीं रहता.

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ज़िंदगी में कोई एक दूसरे के दुख की वजह कम नहीं कर सकता पर दुख का एहसास ज़रुर घटा सकता है. इसके लिए कई बार न कुछ करना पड़ता है और न कुछ कहना पड़ता है, बस साथ ‘होना’ पड़ता है.

जी हां! मुश्किल वक़्त में अगर ये महसूस हो कि आप अकेले नहीं हैं तो बदलता तो कुछ नहीं पर चिंता घटती है और सब्र बढ़ता है…बेचैनी घटती है और सुक़ून बढ़ता है…नाउम्मीदी घटती है और यक़ीन बढ़ता है.        

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आइये एक दूसरे को ‘साथ की रोशनी’ दें. कुछ और हो ना हो…’अच्छा लगेगा’. 🙂

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बेवक़ूफ़ी और बेबसी!

बेवक़ूफ़ी का इलाज हक़ीम लुक़मान के पास भी नहीं था.

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एक तो बेवक़ूफ़ एक बार में बात नहीं मानते. और जब फिर दो-चार बार कहो तो आधी बात मानते हैं, वो भी वह आधी बात जिसको मानना उन्हें आसान या उनके फायदे का लगता है. अब अगर इस बात पर लाचारी और चिढ़ में आप की आवाज़ ज़रा ऊंची हो जाए तो औरों को आप लगने लगते हो ज़ालिम, और बेवक़ूफ़ लगने लगता है मासूम…बेज़ुबान…निरीह…बेबस…सताया हुआ.

अब बेवक़ूफ़ को आप पर छप्पर गाड़ने का एक मौका मिल जाता है. वो कहता है कि “क्योंकि आप चिल्लाये इसलिए आप गलत हैं…आप में सब्र नहीं है…आप में तमीज़ नहीं है…आप डराने की कोशिश कर रहे हैं…आप बात करने लायक ही नहीं हैं”. अब आप या तो आपा खो बैठते हैं – जो फिर आप के खिलाफ जाता है – या बेचारगी में हार मान लेते हैं, और कई बार…माफी भी.

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आइये, बेवक़ूफ़ी बंद करें. सुनना, समझना, पूछना, सोचना और…बात करना सीखें. 🙂 

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होने का सबूत

अपनी क़ामयाबी को अपने होने का सबूत मत बनाइये. 

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कई बार लोग ये सोचते हैं कि वो एक दिन दुनिया को साबित करेंगे कि उनका भी वजूद है. और उनको इसका ज़रिया लगता है ‘कुछ बड़ा करना’…कामयाब होना. और फिर उन्हें धीरे धीरे इसका उलटा भी सच लगने लगता है – कि अगर वो कुछ बड़ा नहीं कर पाए तो उनकी कोई हस्ती ही नहीं है.

सच तो ये है कि ‘आपने जो किया’, ‘आपने जो पाया’, और ‘आप जो हैं’ – इन बातों का आपस में ताल्लुक़ तो है पर ये बातें एक नहीं हैं. ये बातें उसूलन अलग हैं. और अगर इनको एक मानने लगा जाए तो ज़िंदगी ऐसी उलझती है कि फिर कोई क़ामयाबी उसको सुलझाने में कामयाब नहीं हो पाती.                   

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अपने काम, अपनी क़ामयाबी, और अपने आप के बीच फ़र्क रखना सीखिए.

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खोने का खालीपन…

बोतल और कश से ‘सोग मना कर’ जो खोया है उसकी क़ीमत कम मत कीजिये.

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कुछ था जो जब था तो ज़िंदगी हसीन थी. आप के पास सुबह उठ कर दुनिया तक जाने का सबब था या रात को वापिस आने की वजह. उसका ‘होना’ आपके होने की ज़रुरत थी और आपके रहने का मक़सद. उसके इर्द गिर्द आपका जहान था…और आपका वजूद.

जब ऐसा कुछ चला जाए तो जो खालीपन आ जाता है वो न बयां किया जा सकता है न सहन. पर फिर आप उसे भरने के लिए क्या करते हैं? याद रखिये, वो खालीपन जिस चीज़ से भरा जाए वो उसी मेयार की होनी चाहिए, वरना खोई हुई चीज़ की तौहीन होती है.               

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खोई हुई चीज़ों का लिहाज़ रखिये. तभी वो आपको खोने के दर्द से आज़ाद करती हैं.

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रिश्तों का हिसाब-किताब

रिश्ते सिर्फ ‘फ़र्ज़ निभाने’ से ही नहीं ‘हक़ जताने’ से भी मज़बूत होते हैं.

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लोग या तो बेशर्मी की हद तक बेतक़ल्लुफ़ हो जाते हैं या बेगानेपन की हद तक तक़ल्लुफी करने लगते हैं. लेकिन इंतिहा रिश्ते में लुत्फ़ के लिए तो अच्छी हो सकती है पर रिश्ते की उम्र के लिए कभी अच्छी नहीं होती. जज़्बात कहीं बराबर बीच में…संभले हुए हों तो रिश्ते बेहतर और लंबे चलते हैं. पर लोग या तो इतने खुल जाते हैं कि सब बिखरने लग जाए या इतने बंद हो जाते हैं कि अखरने लग जाए.

जबकि रिश्ते में ज़रुरी है कि आप सामने वाले के लिए कुछ करें और फिर उसे भी आपके लिए कुछ करने दें. हमेशा हाथ ‘देने’ के लिए उठे तो सामने वाला अदना महसूस करने लगता है और हमेशा ‘लेने’ के लिए उठे तो सामने वाले को लगता है कि उसका फायदा उठाया जा रहा है. ये ऐसा हिसाब-किताब है जो गर एक तरफ झुक जाए तो रिश्ते का एहसास बदलने लगता है और बात बिगड़ने लगती है.

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रिश्ते दिल से ही निभाइये – पर याद रखिये कि दिल भी दिमाग से बात करता है.

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रिश्तों का अदब

कितने भी करीब क्यों न रहे हों, लोग आपके बिना जीना सीख ही जाते हैं. 

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ज़िंदगी में जगहें खाली नहीं रहतीं. आप की जगह को आपके बाद कोई और ‘उसी’ तरह भले ही न भर पाए पर उसकी भरपाई तो कर ही देता है. जी हां, लोगों को नए हमसफ़र, नए ख़ैर-ख़्वाह और नए ग़मगुसार मिल ही जाते हैं. आप सा भले ही ना मिले पर उन जगहों को नए चेहरे और नाम मिल ही जाते हैं.

इसलिए किसी की ज़िंदगी में होना ना तो ‘अपना हक़’ और ना ‘उस पर एहसान’ समझिये. अरे! जगहें तो पहले से अपने खांचों के साथ मौजूद थीं, आप बस नज़दीक थे इसलिए उनमें आ गए. वो खांचे आपके मोहताज नहीं हैं. आप जा कर तो देखिये, ज़िंदगी उन्हें फिर से भर देगी – कभी जल्दी कभी ज़रा देर से.       

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लोगों की ज़िंदगी में अपनी जगह की क़द्र कीजिये. रिश्तों का अदब है.

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A bug in our programmed reality!

Sometimes, nature has to remind us that we are not the creator but a creature.  

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We humans may be the smartest species on the globe, but even at best, that’s what we are – a species. Yes, we have tinkered and toiled… discovered and invented… adapted and advanced. But we have done that all with the apparatus supplied by nature…on the platform provided by it.

However, in midst of the ‘concrete & cemented’ certainty we have created, we tend to assume a pseudo sense of control over the world and our lives. But then a bug enters our programmed reality, and riding the force of nature, it destroys our inflated sense of omniscience and infallibility.

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Well, let’s restore the humility of a beginner, and return to the basics of living.

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पेचीदा फासले

कभी कभी नाराज़गी इतनी लंबी चल जाती है कि वजह भी याद नहीं आती.

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इंसानी जज़्बात बड़े पेचीदा होते हैं. ना तो इनमें एक और एक मिल जायें तो गिनती में हमेशा इज़ाफ़ा होता है और ना एक को दूसरे से अलग कर दो तो वापस सिफ़र से सफर शुरु कर सकते हैं. ये हिसाब उलझा हुआ भी है और मुश्किल भी, शायद इसीलिए ना तो हर किसी को समझ आता है और ना हर कोई समझना चाहता है.

अब ‘फासलों’ को ही लीजिये! जब लोग दूर हो जाते हैं तो फिर पास आ कर भी साथ नहीं आ पाते… चाह कर भी दूरी मिटा नहीं पाते. कहीं कुछ ऐसा खो जाता है जो फिर लाख ढूंढें नहीं मिलता…कुछ यूं मुरझा जाता है कि फिर नहीं खिलता. और पहेली ये कि मुड़ कर देखो तो समझ ही नहीं आता कि शुरुआत कहां से हुई थी.      

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ख़याल रखिये. नाराज़गी हो या फासला, शुरु होते वक़्त ही दिख जाए तो अच्छा है.

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The moody monsters!

The most annoying and corrosive trait a person can have is… moodiness.

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Some people are perpetual pendulums. They would be fine, and then suddenly you would find them sulky or grumpy. One moment they are talking normally and they would abruptly turn indifferent or distant. Phew! You can never predict what’s coming your way.

They keep you guessing, and through it, hijack attention and eat away a major chunk of your mental energy. To have them around is like having something simmering on brain’s backburner – you can never ignore it. It’s so draining and exhausting to deal with them!

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So, stay closer to emotional ‘arithmetic mean’, else…“So mean of you!”

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Good to Great? Nah!

Don’t get confused between doing ‘something good’ and ‘something big’.  

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Not every venture needs to be scaled up. Not every talent needs to be showcased to the whole world. Not every music piece needs to be made viral. Not every initiative needs to feature in newspapers. Not every pursuit needs to be commercialized. Yup! It’s ok if some entities stay in their orbit and keep working on their own terms. After all, that’s also ‘success’ in one way.

Don’t get me wrong. If outreach happens, that’s great! But it shouldn’t be an obvious progression dictating every entity’s life-cycle, or else the ‘good’ and ‘big’ get jumbled. Of course, in some cases, ‘good’ can be made ‘big’ as well; but in some cases, the texture of the work or fabric of the entity is such that effort to make it ‘big’ squeezes the ‘good’ out of it. And then, it goes nowhere.

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There are alternate definitions of success. ‘Making it big’ isn’t the only one.

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