छोटी छोटी लड़ाइयां

कुछ लोगों के लिए ज़िंदगी छोटे छोटे समझौतों की एक लंबी से क़तार होती है.

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वो रोज़ छोटी छोटी लड़ाइयां चुपचाप हार रहे होते हैं और मजबूरी के कड़वे घूंट पी रहे होते हैं. पर देखो तो उनकी ज़िंदगी में कमोबेश सब ठीक ही लगता है. कोई एक बला का दुख, एक बड़ी तक़लीफ़, या एक गहरी कमी – ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता. इसीलिए उनसे किसी को न तो हमदर्दी की कोई वजह दिखती है और न वो ग़मग़ुसारी के ज़रुरतमंद या क़ाबिल लगते हैं.

पर, जो लगता है उसके उलट, ऐसे लोग दरअसल अंदर से परेशानी में होते हैं. उनके अंदर हमेशा एक बेचैनी सी घर किये रहती है – सर में एक भारीपन, मन में एक ख़ला, दिमाग खिंचा खिंचा सा, नींद उचटी, धड़कन उखड़ी सी, और सांस उथली. ऐसे लोग एक अलग ही तरह से ‘अकेले’ होते हैं. और पता है ऐसे लोग कभी अपनी तकलीफें किसी को नहीं बता पाते, और यही…

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 एक दिन इनकी सबसे बड़ी तक़लीफ़ बन जाती है.

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हमारा ज़ाती मामला!

मेरे और मेरे खुदा का रिश्ता हमारा ज़ाती मामला है, आप बीच में ना आयें.

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मैं सारे रिवाज निभाता हूँ क्योंकि उस वक़्त मुझे अपने बड़े-बुज़ुर्गों के चेहरे पर आई मुस्कराहट बहुत अच्छी लगती है, फिर भी…मेरे और मेरे खुदा का रिश्ता हमारा ज़ाती मामला है, आप बीच में ना आयें! मैं सारी कहानियों और तस्वीरों पर यक़ीं करता हूँ क्योंकि मुझे अपनी जड़ों से जुड़ाव अच्छा लगता है, फिर भी…मेरे और मेरे खुदा का रिश्ता हमारा ज़ाती मामला है, आप बीच में ना आयें!

मैं सारी पाक़ जगहों पर सर झुकाता हूँ, सारे वार-त्यौहार मनाता हूँ, और सारे व्रत-उपवास रखता हूँ क्योंकि मुझे एक बड़ी सी बिरादरी और कुनबे का हिस्सा होना सुकूं और खुशी देता है, फिर भी…मेरे और मेरे खुदा का रिश्ता हमारा ज़ाती मामला है, आप बीच में ना आयें! अब आप पूछेंगे “जब ये तुम्हारे और ख़ुदा के बीच का मामला है तो हमें ये सब क्यों बता रहे हो ख़ुदा के लिए ये भी बता दो?”

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अरे! ये मेरे और आपके बीच का मामला है, ख़ुदा कहां से बीच में आ गया? 🙂

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हँसता-गाता ऋषि!

ताज्जुब है कैसे एक शख़्स आपके ज़हन में ‘जवानी और रवानी’ का निशाँ बन जाता है!

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आप उसे जब से देखते आए हैं हमेशा हंसते-खेलते देखते आए हैं – नाचते-गाते हुए, इश्क़ में पड़ते हुए, प्यार जताते हुए! मुस्कराहट ऐसी कि उसके चेहरे पर हो तो आप के लब तक पहुंच जाए, और कशिश ऐसी कि गुस्से या ग़म में हो तो भी उतना ही हसीन लगे.

अजब है ना! जब ऐसा शख़्स अपने जाने का वक़्त भी चुनता है तो ऐसा कि चंद नज़दीकी ‘जिद्द-ओ-जहद के गवाहों और भागीदारों’ के अलावा और किसी के लिए उसके उम्रदराज़ या बेजान दिखने की कोई सूरत ना बने. और वो उन सबके ज़हन में हमेशा के लिए बना रहे…

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‘जवानी और रवानी’ का निशाँ.

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‘इरफ़ानी’ होने की कोशिश…

कुछ लोग आपके कुछ नहीं लगते पर उनका जाना बहुत दुख देता है.

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उस शख्स को तो पता भी नहीं कि आप कौन हैं, या आप हैं भी! और आप भी उससे कभी नहीं मिले होते. अरे मिलना तो दूर, आपने कभी उसे रुबरु देखा या सुना भी नहीं होता! और आप उसे जानते भी हैं तो बस उसके एक ही पहलु से, उसके किरदार के एक ही हिस्से से. आप तो दरअसल ये भी नहीं जानते कि उसके उस पहलु के परे वो कौन है और कैसा है!

पर कमाल देखिये फिर भी आपको लगता है आप उसे करीब से जानते हैं. जी हां! आप उसे जानते हैं उसके फ़न से, उसके हुनर से, उसके काम से, उसके क़लाम से, उसकी लायक़ी से, उसकी सलाहियत से, उसके मेयार से, उसके शाहकार से, उसके इमान से, उसके… ‘इरफ़ान’ से. आइये, आज एक शख़्स के जाने पर हम फ़ानी लोग खुद से वादा करें कि…

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…हम ला-फ़ानी तो हो नहीं सकते पर अपने काम में ‘इरफ़ानी’ होने की कोशिश ज़रुर करेंगे.

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अच्छाई की अदा! :-)

अच्छा होने का एक नुकसान ये है कि कुछ लोग आपको नादान मान लेते हैं.

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दुनिया में आपको सब तरह के लोग मिलते हैं. होते हैं सभी अच्छे-बुरे का मेल-जोल, पर हरेक में आपको इन दोनों का अलग अलग हिस्सा-और-हद मिलते हैं. और चूंकि ‘पहचान चस्पा करना’ इंसान के लिए ज़रुरी है इसलिए आप अच्छे-बुरे में से जो ज़्यादा या अक्सर नुमाया होता है उसके मुताबिक़ लोगों को अच्छा या बुरा कहने लगते हैं. ये तरीक़ा अचूक तो नहीं है पर ख़ैर कारग़र है.

लेकिन फिर आपको एक बड़ी ही दिलचस्प प्रजाति मिलती है – ऐसे लोग जो आपके सामने तो अच्छे दिखते और दिखाते हैं लेकिन आपके पीछे रंग, लफ्ज़ और सुर बदल लेते हैं. ये प्रजाति इन दिनों बहुतायत में पाई जाती है. ऐसे लोग आपके अच्छेपन की वजह से सोचते हैं कि आप ना तो इनकी असलियत पकड़ पाए और ना मंसूबे. पर ये नहीं जानते कि अच्छे लोग सब समझते हैं पर बस…        

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इस सब को ‘बच्चों का खेल’ मान कर नज़रअंदाज़ करते रहते हैं. 🙂

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बदला

कभी कभी आप उन सब से बदला लेना चाहते हैं

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जिन्होंने आपका यक़ीन तोड़ा…जिन्होंने आपको अकेला छोड़ा, जिन्होंने आपको तकलीफ पहुंचाई…जिन्होंने आपसे गलतियां कराई, जिन्होंने आपका मज़ाक़ उड़ाया…जिन्होंने आपका फायदा उठाया, जिन्होंने आपकी मेहनत का फल छीना…जिन्होंने हमेशा मुश्किल किया जीना.

जिन्होंने काम में अड़ंगे डाले…जिन्होंने कभी कोई मोर्चे न संभाले. जिन्होंने एन वक़्त पर मुंह फेरा… जिन्होंने गलत वक़्त पर आ के घेरा, वो जो एहसान फ़रामोश निकले…वो जो क़तरा के खामोश निकले, कभी जो न माने कि वो भी गलत हैं…वो जिनकी वजह से आप अब भी संघर्षरत हैं.              

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आप उन सब से बदला लेना चाहते हैं! पर फिर सोचते हैं… ‘फ़र्क़’ क्या रह जाएगा?

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कमज़ोर साथ

किसी का साथ देना हो तो कमज़ोरी बन कर नहीं ताक़त बन कर दीजिये.   

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कुछ लोग हर सुख-दुख में हमेशा आपके साथ होते हैं. वो इतना ज़्यादा जुड़े होते हैं कि आपके हर जज़्बाती बदलाव के साथ चढ़ते उतरते हैं. आप का मन बोझिल होता है तो उनका भी हो जाता है, आप दुखी होते हैं तो वो भी हो जाते हैं, आप नाउम्मीद होते हैं तो वो भी हो जाते हैं. पर इतना जुड़ाव…बड़ी परेशानी बन जाता है

अब हर मुश्किल वक़्त में आपका भार बढ़ जाता है. आप ये समझ नहीं पाते कि ” खुद को देखो कि इनको देखो”…”खुद को संभालो कि इनको संभालो’. इस तरह इनकी मौजूदगी मदद तो छोड़िये, एक नया मसला बन जाती है – जो ध्यान भी खींचता रहता है और ताकत भी. और अफ़सोस इस बात को ये कभी नहीं समझते.     

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इसलिए किसी का साथ उसके जैसा हो कर नहीं, उसको जैसी ज़रुरत है ‘वैसा’ हो कर दें.

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मुश्किल वक़्त

मुश्किल वक़्त में खुद को गौर से देखिये. अपने बारे में बहुत कुछ पता चलेगा.

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मैं यहां मुश्किल वक़्त में आपके पहले बरताव की बात नहीं कर रहा – आप कितना घबराते हैं, कितनी नाउम्मीदी महसूस करते हैं, कितना कुढ़ते हैं या कौन सी गालियां देते हैं. ये तो आपकी ‘शुरुआती शक्ल’ है जो कुछ हद तक हालात या हालत और कुछ कुदरत या आदत के असर में आती है.

मैं बात कर रहा हूं उस सब की जो आप उस पहले उबाल के बाद करते हैं. इसे ऐसे देखिये – जब कुछ गिर कर टूटता है तो टूट कर बिखरता है, और उन बिखरे टुकड़ों को ढूंढना, चुनना, समेटना और जोड़ना पड़ता है. और ये सब कोई कब, कितना और कैसे करता है ये उसके बारे में बहुत बताता है. 

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जी हां! ये सब करते उस शख्स को गौर से देखिये… ‘वो’ आप हैं.

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मूसलों से मशवरा

ऐसा नहीं कि लोगों में ‘हौसला’ नहीं होता, दरअसल लोगों से ‘फैसला’ नहीं होता.

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आप लोगों से बड़ी बड़ी बातें बुलवा लो, ऊंचे ऊंचे ख्वाब दिखवा लो, मुश्किल मुश्किल सवाल पुछवा लो, भारी भारी इरादे करवा लो, अच्छी अच्छी राय दिलवा लो. आप सब करवा लो – बस फैसले लेने को मत कहो. क्योंकि उससे वो बौखला जाते हैं. और भला क्यों ना हो ऐसा – अब उनके सर पर भार जो आ जाता है!

और मैं यहां बिना सोचे समझे कुछ भी ‘कह देने’ या ‘चुनने’ की बात नहीं कर रहा! वो ‘फैसला लेना’ नहीं होता. ‘फैसला लेना’ तो एक संजीदा और ज़िम्मेदार कवायद है जिसमें “जानना-बूझना, सोचना-समझना, देखना-भालना…यानी मूसलों से मशवरा करते हुए सर ओखली में डालना” पड़ता है. और लोग इसी से तो बचते हैं.     

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इसलिए हुज़ूर! फ़ैसले लेने से बचिए मत. वरना…हौसले यूं ही ज़ाया हो जाएंगे.

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वक़्त बेवक़्त!

आप लाख कोशिश कर लें पर गुज़रा हुआ वक़्त वापस नहीं ला सकते.

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जी हां, न पैसे न पहचान से…न मेहनत से न मान से – आप किसी भी तरह से खोये लम्हे नहीं पा सकते. एक बार जो रेत हाथ से फिसली तो फिर गई. जो गलत किया जो सही किया…जो करना चाहिए था पर नहीं किया – सब बेमानी हो जाता है, क्योंकि न रंज न ख़लिश…न चाह न कोशिश – किसी से भी आप गुज़रा वक़्त नहीं ला सकते.

हां पर आप गुज़रे वक़्त से ‘जो वक़्त आपके हाथ में है’ उसे सही तरह गुज़ारने के सबक ज़रुर ला सकते हैं. ‘आज’ को संभालने की समझ ज़रुर पा सकते हैं. पर पता है ऐसा करने के लिए भी सबसे ज़रूरी क्या है? वो है ‘गुज़रते वक़्त का एहसास’. यही हम में कम होता है. हम हाथ के वक़्त को यूं ही गवां देते हैं – बेहोश बेसबब से. 

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आइये! आज अगर वक़्त है, तो…उसे यूं ही न चले जाने दें.

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