ना-समझ-ना!

किसी अपने का ‘ना समझना’ किसी पराए की नासमझी से ज़्यादा दुख देता है.

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इंसान को जितना ग़म नुक़सान से होता है उससे ज़्यादा ग़म होता है उम्मीद के टूटने से. और हममें से तक़रीबन हर शख़्स सारी समझदारी के बावजूद अपने नज़दीकी लोगों से उम्मीदें बांध ही बैठता है. और उम्मीदों की उस फेहरिस्त में एक उम्मीद ये होती है कि वो हमें समझेंगे. वो समझेंगे हमारे ख़्वाब, ख़याल और जज़्बात…हमारी मुश्किलें, उलझन और हालात.

और हमें तब धक्का लगता है जब वो हमें समझना तो दूर समझने की कोशिश करते भी नहीं दिखते. ऐसा लगता है जैसे हमारी तरफ आंखें मूंद के हमसे बात कर रहे हों – किसी अजनबी की तरह. ये तजरबा ऐसा होता है जैसे यकायक एक भयानक ख़्वाब के दौरान हलक़ से आवाज़ ना निकल रही हो. वैसी ही तकलीफ और लाचारी महसूस होती है इस वक़्त. 

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किसी अपने को इस दुख से मत गुज़रने दीजिये. जाइये…सुनिए और समझने की कोशिश कीजिए.

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ख़ज़ाने की खोज!

कभी कभी आपको लगता है कि आपने ज़िंदगी में कुछ भी सही नहीं किया.  

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आपने ऐसा कोई काम नहीं किया जिसका ‘हासिल’ जुड़ कर किसी दिन एक ‘फल देने वाला’ मुकम्मल दरख़्त बने, आपने ऐसे कोई रिश्ते नहीं बनाए जो ज़िंदगी के उतार चढ़ाव में बुनियादी सहारा बनें, और ना ही आपने अपने आप को इतना क़ामिल बनाया कि हालात से जिद्द-ओ-जहद में जो ज़ख्म आएं उन्हें ज़ब्त-ए-आह से झेल जाएं.

ऐसा लगता है जैसे आप एक खदान में ज़मीन की तरफ मुंह किए बरसों खोदते रहे…कुछ ऐसा ढूंढ़ने के लिए जो आपको लगता था कीमती है पर जब आप बरसों बाद उसे मिट्टी से सने हाथों में ले कर बाज़ार पहुंचे तो उसकी कोई कीमत नहीं लगी. और अब आप खुद बाज़ार में खड़े हैं – न बेचने वाले, न खरीदने वाले, बल्कि…सामान की तरह.        

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अरे! खदान के उस संदूक़ में एक क़िताब भी तो मिली थी ‘ज़िंदगी के सबक़’. उसका क्या हुआ!

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छोटे बड़े लोग!

बड़े शहरों की बड़ी इमारतों में कई लोग रहते हैं अपनी छोटी आखों में बड़े सपने लिए.  

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इनमें से अधिकतर उन जगहों से आए थे जो छोटी पड़ गई थीं या तो इनके बड़े ख़्वाबों के लिए या इनकी छोटी ज़रुरतों तक के लिए. और कुछ तो इसलिए भी आ गए थे क्योंकि इन्हें अपने छुटपन में जो चौबारे बड़े लगते थे वो कुछ बड़ी बड़ी किताबों को पढ़ने के बाद या कुछ बड़े लोगों की बड़ी बड़ी बातें सुनने के बाद अचानक छोटे लगने लग गए थे.

पर सच ये है कि अब ये जान गए हैं कि इस बड़े से शहर में इनमें से अधिकतर का कुछ नहीं होने वाला. पर अब ये वापस भी नहीं जा सकते, क्योंकि ये बड़ी दूर निकल आए हैं. और जो बड़ी सी दुनिया अब देख ली है उसके बाद इनकी जगह और छोटी लगेगी. अब तो अक्सर ये अपने घर में दो छोटे छोटे हाथों को अपने हाथों में ले कर सोचा करते हैं कि…     

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“एक दिन ये छोटे छोटे हाथ बड़े काम और बड़ा नाम करेंगे”.

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सफ़र सिफ़र से!

जब ये सोचें कि आप ‘कहां तक पहुंचे’ तो ये भी याद रखिये कि ‘कहां से शुरु हुए थे’.

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इंसान को अपने तय किये गए का सफ़र का एहसास रहना चाहिए, वरना वो हर कुछ वक़्त में रास्ते पर किसी को खुद से आगे देख कर या तो मायूस हो जाएगा या नाराज़. उसे ये याद रखना चाहिए कि हर किसी की शुरुआत अलग अलग जगह से हुई है इसलिए भले ही रास्ता समान है पर वो अपने सफ़र को किसी भी और के सफ़र के मुक़ाबिल नहीं रख सकता.

इस समझ के बिना वो हर कुछ वक़्त में ऐसा मानेगा कि ‘वो पीछे छूट गया’ जबकि उसे वो सब याद रखना चाहिए ‘जो पीछे छूट गया’, क्योंकि जो पीछे छूट गया…जिसे वो पा कर भूल गया…वो सब दरअसल उसके सफ़र का असली हासिल है. जब वो इस तरह सोचेगा तो वो फ़क्र भी महसूस करेगा, शुक्राना भी; और बाक़ी बचे सफ़र के लिए हौसला और यक़ीं भी.

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आख़िर सिफ़र से शुरु किया गया सफ़र कहीं तक भी पहुंचे क़ामयाब ही तो होता है. 🙂

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अपने हक़ में

जो कहते हैं कि आपके मुश्किल वक़्त में आपका साथ देंगे, उनमें से ज़्यादातर उस वक़्त आपका साथ… नहीं देंगे.

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और ऐसा नहीं है कि उन्होंने आपसे झूठ कहा था. जब उन्होंने ये कहा था तब दरअसल वो भी ये मानते थे कि वो देंगे. लेकिन वादे जिन हालात में किये जाते हैं और जिन हालात में निभाने पड़ते हैं उनमें फ़र्क़ होता है. जब उन्होंने ये कहा था तब आपके हालात भी अलग थे और उनके भी. ऐसे में वो ‘मुश्किल वक़्त’ सिर्फ एक ‘तसव्वुर’ था और उसमें साथ देना सिर्फ एक ‘ख़याल’.

और एक तसव्वुर पर एक उम्दा ख़याल सोचना आसान भी है और अच्छा भी लगता है. पर जब ‘मुश्किल वक़्त’ आता है तब अच्छे-अच्छों के हाथ-पांव ठन्डे पड़ जाते हैं और बड़ी बड़ी बातें काफ़ूर. तब अक्सर ‘वादा करने वाला’ आपके बारे में नहीं ‘अपने’ बारे में सोचने लगता है. और इस बात के लिए आपको उसे माफ़ कर देना होगा, क्योंकि ऐसा करना उसके हक़ में है. 

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और हां! उस ‘मुश्किल वक़्त’ में कुछ ऐसे भी होंगे जो ऐसा वादा निभा रहे होंगे जो उन्होंने कभी… किया ही नहीं. 🙂

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मर्ज़ी के मरीज़!

आप कौन सा काम करते हैं वो शायद आपके हाथ में ना हो पर उसे कैसे करते हैं ये हमेशा आपके हाथ में होता है.        

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हर शख़्स चाहता है कि उसे अपनी मर्ज़ी का काम मिले – वो काम जो उसकी फ़ितरत के नज़दीक हो, जो उससे मोहब्बत की तरह से पेश आए, जिसे करने में उसका हुनर, फ़न, तबीयत, तासीर सब साथ आ एक ‘मुकम्मल’ एहसास दें. पर लोग ये नहीं समझते कि ऐसा एकदम से नहीं हो जाता, ऐसा ‘होते होते’ होता है. तब तक आप जो काम कर रहे हैं उसे ‘मजबूरी’ की शक्ल मत दीजिये.

जी हां! काम से अपना जी मत उचटने दीजिये. काम की तरफ अपनी एक अलहदा ‘अदा’ और एक अलग ‘अंदाज़’ बनाइये, ऐसी शैली विकसित कीजिये कि देखने वाला आपके काम को देख कर आपको पहचान जाए. कहते हैं ना कि “हर काम पर उसे करने वाले के दस्तख़त होते हैं”, तो अपने काम पर अपनी मुख़्तलिफ़ छाप छोड़िये. और पता है जब आप ऐसा करेंगे तो क्या होगा?                                

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जल्द ही ‘क़ायनात’ आपकी पसंद के काम को आपके क़रीब लाने लगेगी. आज़मा कर देख लीजिये!

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सुख का सवाल!

सुख एक सहज अनुभूति है, अपनी बौद्धिक खुजाल से उसे एक जटिल प्रक्रिया मत बनाइये.        

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ज़िंदगी क्या है? हम यहां क्यों हैं? ‘ये’ वैसा क्यों नहीं? रिश्तों के क्या मायने हैं? क्या सही है? क्या गलत है? – ऐसे न जाने कितने सवालों में लोग उलझे रहते हैं. मुझे गलत मत समझिएगा! मैं बड़ा हिमायती हूं ज़िंदगी में ‘गहरे और अहम’ सवालों के जवाब ढूंढने का. पर क्या है कि ‘गहरे और अहम’ सवालों और ‘फजूल और गैर-ज़रुरी’ सवालों में बहुत झीना और महीन सा फ़र्क़ होता है.

वो फ़र्क़ ये है कि जहां ‘गूढ़’ सवाल आपको ज़िंदगी के ज़्यादा नज़दीक ले जाते हैं, उसकी तरफ स्वीकार-भाव पैदा करते हैं और उसे ज़्यादा शिद्दत से और ज़्यादा डूब कर जीने की तरफ उन्मुख करते हैं, वहीं ‘मूढ़’ सवाल आपको ज़िंदगी से दूर ले जाते हैं, आप में जीवन के प्रति उदासी या उदासीनता भरते हैं, और आपको ‘अंततः ज़ख्म देने वाली’ बौद्धिक खुजाल का आदी बना देते हैं.                          

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और फिर ‘सुख’ एक अनुभव नहीं, बल्कि एक विश्लेषण और विवेचना का विषय बन कर रह जाता है.

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नज़र लग जाती है!

अक्सर नज़र में आने की कोशिश में जो ज़्यादा अहम है वो नज़रअंदाज़ होने लगता है.       

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लोगों की दिक़्क़त ये है कि वो औरों का ध्यान खींचने और उनकी निगाह में आने के चक्कर में धीरे धीरे अपना ‘सत’ खो बैठते हैं. जी हां, लोग ये बात नहीं समझते कि किसी को रिझाने और मुतासिर करने में वो जितना वक़्त और जितना ज़ोर लगाते हैं उतना अगर वो अपने ‘काम’ पर ‘काम’ करने में लगाएं तो उनकी पहचान बनना और उसका ‘बना रहना’ कहीं ज़्यादा मुमकिन है.

पर असल दिक़्क़त दरअसल ये है कि आजकल हम में बुनियादी तौर पर एक बात ग़लत हो रही है – ‘ज़्यादा’ और ‘जल्दी’ दोनों के साथ होने की ख्वाहिश. हम बस ‘आ’ कर ‘छा’ जाना चाहते हैं. अब हम में इतना सब्र ही नहीं है कि हम अपनी ‘असल अच्छाई और क़ाबिलियत’ को उपजने और उभरने दें, लोगों के दिल में उसकी इज़्ज़त बढ़ने दें, और फिर मक़बूलियत को आने दें.              

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और ऐसे में हमारा ध्यान ‘काम’ से हट कर ‘मुक़ाम’ पर चला जाता है और मुक़ाम…और थोड़ा दूर.

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सीधी सच्ची बात!

कभी कभी बात के पीछे के जज़्बात इतना हावी हो जाते हैं कि बात तो पहुंच ही नहीं पाती.   

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जी हां! अपनी बात किसी अपने को कभी यूं ही कह दिया कीजिये ना! – बिना प्यार की चाशनी में डुबाए, बिना गुस्से का तड़का लगाए, बिना इलज़ाम का नमक छिड़के, बिना पुरानी बातों का घी उंडेले, बिना शिकायत के खट्टेपन के, बिना बुराई के कड़वेपन के, बिना चिढ़ के तोरेपन के, बिना उदासी के फ़ीकेपन के, बिना दर्द की तरी में डाले, बिना ‘समझ’ के काढ़े में उबाले.

अब आप मुझसे कहेंगे कि “तुम बड़े उस्ताद बने फिरते हो ‘जज़्बात के इल्म’ के और ऐसी जाहिलाना बात करते हो! अरे जज़्बात तो छलकेगा ही! एहसास तो झांकेगा ही”! तो मैं आप से कहूंगा कि “हुज़ूर मैं यही तो कह रहा हूं कि जितना जज़्बात उस बात में ख़ालिस ख़रे तौर पर है बस उतना ही रहने दीजिये, उस में बिना ‘छेड़छाड़ या जोड़ना-घटाना किये’ अपनी बात कहिये”.     

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जब आप ऐसा करेंगे तो आपकी असल ‘बात’ भी पहुंचेगी और ख़ालिस ‘जज़्बात’ भी. 🙂 

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On International Day of Families! :-)

जो परिवार किसी एक शख्स की कोशिशों या क़ुर्बानियों पर खड़ा हो वो आगे पीछे बिखर ही जाता है.

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जी हां, एक घर…एक परिवार बनाना एक साझा ज़िम्मेदारी होती है. पर अक़्सर कोई एक शख़्स परिवार को जोड़े रखने के लिए ज़्यादा मशक़्क़त कर रहा होता है और बाक़ी लोग या तो कम दिलचस्पी लेते हैं, कम वक़्त देते हैं, कम हिस्सा लगाते हैं या कम समझदारी दिखाते हैं. ऐसा परिवार या तो उस शख़्स के रहने तक ही बना रहता है या उस शख़्स को तोड़ते हुए टूटता है.

आइये आज एक मौक़े के बहाने से ये अहद करें कि परिवार को जोड़े रखने में अपना अपना फ़र्ज़ निभाएंगे – थोड़ी और पहल करेंगे, कुछ और सुलह करेंगे, सुलझेंगे और सुलझाएंगे, ग़लती करने पर माफ़ी मांगेगे, ज़्यादा और जल्दी माफ़ करेंगे, एक दूसरे से खुल कर बात करेंगे, एक दूसरे का साथ देंगे, एक दूसरे की तारीफ़ और इज़्ज़त करेंगे, एक दूसरे की ख़ुशी में ख़ुश होंगे. 

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आइये आज अहद करें कि हमें जैसा भी घर…परिवार मिला हो, हम उसे थोड़ा बेहतर बनाएंगे.

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