किसी अपने का ‘ना समझना’ किसी पराए की नासमझी से ज़्यादा दुख देता है.
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इंसान को जितना ग़म नुक़सान से होता है उससे ज़्यादा ग़म होता है उम्मीद के टूटने से. और हममें से तक़रीबन हर शख़्स सारी समझदारी के बावजूद अपने नज़दीकी लोगों से उम्मीदें बांध ही बैठता है. और उम्मीदों की उस फेहरिस्त में एक उम्मीद ये होती है कि वो हमें समझेंगे. वो समझेंगे हमारे ख़्वाब, ख़याल और जज़्बात…हमारी मुश्किलें, उलझन और हालात.
और हमें तब धक्का लगता है जब वो हमें समझना तो दूर समझने की कोशिश करते भी नहीं दिखते. ऐसा लगता है जैसे हमारी तरफ आंखें मूंद के हमसे बात कर रहे हों – किसी अजनबी की तरह. ये तजरबा ऐसा होता है जैसे यकायक एक भयानक ख़्वाब के दौरान हलक़ से आवाज़ ना निकल रही हो. वैसी ही तकलीफ और लाचारी महसूस होती है इस वक़्त.
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किसी अपने को इस दुख से मत गुज़रने दीजिये. जाइये…सुनिए और समझने की कोशिश कीजिए.