कभी कभी एक शख्स ना ज़िंदगी में पूरी तरह आ रहा होता है न ज़िंदगी से पूरी तरह जा रहा होता है.
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कुछ मर्तबा रिश्ता एक पहेली बन जाता है – समझ नहीं आता कि आप रिश्ते में हैं या नहीं? या सामने वाला रिश्ते में है या नहीं? या कोई ‘रिश्ता’ भी है या नहीं? कभी लगता है कि आप उसके लिए अपनों से ज़्यादा अपने हैं तो कभी किसी अजनबी से ज़्यादा पराए. आप कभी उसकी ‘आदत और ज़रुरत’ लगने लगते हैं तो कभी यूं महसूस होता है जैसे वो हो एक ‘माज़ी या कोई याद’.
अजीब उलझन हो जाती है, जैसे किसी चुभी फांस का सिरा टूट गया हो और वो कभी अंदर महसूस होती हो तो कभी गायब. दिमाग का एक हिस्सा वहीं अटका रहता है, जैसे किराए पर चला गया हो. बिलकुल ग़ालिब के शेर का वो ‘तीर-ए-नीम-कश’ और वही ख़लिश जो उसके जिगर के पार ‘ना’ होने से हुई होगी. बड़ी अलग बेचैनी और अनमनापन है. समझ नहीं आता करें तो क्या करें?
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अरे! क्या करें मतलब? साफ़ बात करें. ये सब कहें. फैसला लें. तय करें. या फिर…भूलें और आगे बढ़ें.