कोई ख़ुद को कभी यूं ही एक दिन यकायक ख़त्म नहीं करता.
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वो धीमे धीमे बढ़ रहा होता है उस तरफ, और फिर अचानक एक दिन दहलीज़ पर आ खड़ा होता है, ख़ुद इस बात से बेख़बर कि वो इतनी दूर निकल आया है ज़िंदगी से और इतने नज़दीक क़ज़ा के. और फिर वो ग़मगीन और रंजीदा ‘दिन’ अपने लम्हों में अपनी तहरीर ख़ुद लिखता है, उस शख़्स के होश-ओ-इख़्तियार के बाहर.
पर कोई ‘क्यों’ इस तरह क़तरा क़तरा खाली हो कर उस ‘ख़त्म’ होने के दिन तक जाता है? दरअसल इसकी वजहें दो ‘क़िस्म’ की होती हैं. पहली क़िस्म – “बदक़िस्मती, बदहाली, बीमारी और बेचारगी” और दूसरी क़िस्म -“बेसहारापन, बेतरतीबी, बेताबी और बेवक़ूफ़ी”. आइये! पहली क़िस्म की वजहों से बचने की दुआ करें, और
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…दूसरी क़िस्म की वजहों से बचने (और बचाने) की कोशिशें.