Never the same again

Sometimes, something happens, and you are never the same ‘you’ again.     

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Some experiences jolt you to the core. Not in the sense of making you shout like hell but in the sense of making you numb like shell. You are so taken aback by the suddenness and the force of it that you aren’t able to even register what has happened. It just leaves you stunned like a stone.

But as the tides recede, you begin to realize the enormity of what it has done to you. It changes something deep inside you. And that change is not incremental or reversible, it is actually eruptive and irrevocable. Yup, it changes something about you mentally, that too fundamentally.

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And then you wonder why you were ‘what you were’ before it happened.

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The walk-over

Don’t accommodate people to an extent that it comes back to haunt you.     

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Being nice can be a big disadvantage. Because you are sensitive and considerate, you go out of the way to take care of people, adapt to create synchrony, ignore their idiocy, overlook their arrogance, and compensate for their incompetence. Yup! You deploy extra maturity to somehow make things work.

And that extra maturity doesn’t come from nowhere. You sacrifice your natural flow, you curb your obvious reactions, you postpone your instinctive preferences, and you even go against your very nature. And it all takes a toll. However, after all the toll, it is seldom respected, remembered or reciprocated.

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So, set limits for accommodating. Else… people will gladly walk over you.

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Three cardinal sins of spirituality

Three cardinal sins of SPIRITUALITY are – EXPLAIN, PASS ON & INDUCT.  

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Yesterday, a dear one was discussing with me about how spirituality can be really hollow and shallow, and was urging me to explain how it is not. In that context, I told her the words in the first line – The three cardinal sins of SPIRITUALITY are – EXPLAIN, PASS ON, and… INDUCT. This is how it goes…

When I feel a feeling or experience an experience, it is not hollow or shallow to me, as I feel/experience it in my physiology. But when I try to EXPLAIN it through words, PASS it ON through methods or try to INDUCT others into it through systems, then it runs a risk of becoming hollow, shallow and manipulative.

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Well, I’ve already committed first sin. Now let me stop before other two. 🙂 

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कर्म का सिद्धांत

याद रखें कि न केवल कर्म ‘से’ फल होता है बल्कि ‘कर्म’ भी ‘फल’ होता है.

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इसे ऐसे देखिये. मैं अच्छा काम सिर्फ आगे बढ़ने के लिए नहीं करता, बल्कि मैं अच्छा काम इसलिए करता हूँ क्योंकि मुझे अच्छा काम करना अच्छा लगता है. माना कि मैं इतना महान इंसान नहीं हूँ कि सिर्फ अच्छा लगता है इसलिए अच्छा काम करुँ, पर इतना अदना भी नहीं कि सिर्फ आगे बढ़ने के लिए ही अच्छा काम करुँ.

अब चूंकि मैं अच्छा काम इसलिए भी करता हूँ क्योंकि मुझे अच्छा काम करना अच्छा लगता है, तो मुझे एक फल तो कर्म के दौरान ही मिल गया. और चूंकि मेरे अच्छा काम करने से मेरे आगे बढ़ने की संभावना भी बढ़ती है इसलिए मुझे दूसरा फल मिलने के आसार भी बढ़ गए. जी हां! जब भावना बढ़ती है, संभावना भी बढ़ती है.   

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अच्छा हां! मैं इतना समझदार अक्सर होता हूँ हमेशा नहीं. पर ‘अक्सर’ भी…काफी होता है. 🙂  

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वाह उस्ताद!

आप कितनी भी तालीम ले लें, फ़न का एक हिस्सा तो रवायत से ही आता है.

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कहते हैं कुछ बातें उस्ताद अपने जाये को ही सिखाता है. ये बात पूरी तरह गलत तो नहीं है क्योंकि ‘फ़न और हुनर’ में ‘ख़ून और ख़ानदान’ के असर से हम सब वाक़िफ़ हैं. आप लाख़ मेहनत कर लें, कुछ तो गुर है जो गुरु उसी को देता है जो उसकी रवायत आगे बढ़ाने वाला है. और इसमें ‘राजा का बेटा राजा’ जैसी कोई बात नहीं है.

दरअसल वजह ये है कि कुछ बातें इंसान को ‘सिखाई’ नहीं जा सकती, उन्हें वो सिर्फ ‘सीख’ सकता है. और इसीलिए उस्ताद से वैसी चंद ख़ास बातें वही सीख पाता है जो अक्सर उसके सबसे क़रीब होता है और उसके साथ सबसे ज़्यादा वक़्त बिताता है. अरे हुज़ूर! ऐसे ही तो नहीं ‘घराने’ की रवायत तक़रीबन हर हुनर में है.        

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इसलिए रवायत का हिस्सा बनिए. अगर उस्ताद का ‘जाया’ नहीं हैं तो उस्ताद का ‘साया’ बन कर.  

 

* ‘जाया’ मतलब ‘पैदा किया हुआ’.

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प्यार का सच

असली प्यार महज़ लफ़्ज़ों में नहीं बरताव में दिखता है.

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बड़ा आसान है किसीको कहना कि आप उसे सचमुच बोहोत प्यार करते हैं. भला लगता क्या है इसमें – थोड़ी लफ़्फ़ाज़ी, कुछ तोहफे और रूमानी लहजा. लो! हो गया प्यार का समां और सामां तैयार. पर ज़रा ध्यान से देखिये! ये एक-दूसरे पर मर-मिटने के वादे करने वाले एक दूसरे के लिए ‘ज़रुरत के मुताबिक़’ थोड़ा ढलने के लिए भी तैयार नहीं होते. दरअसल इनकी ज़िंदगी का दायरा इन्ही के आस पास खींचा हुआ रहता है.

अगर आप सच में किसी को चाहते हैं तो उस से कभी ये भी पूछिए कि आप उसके लिए ऐसा क्या कर सकते हैं जिससे उसकी ज़िंदगी आसान, बेहतर या वैसी होती है जैसी वो बनाना चाहता है, और फिर वो करने की कोशिश कीजिये. और हां! इसके लिए अगर आपको थोड़ा बदलना पड़े तो थोड़ा बदलिए भी. जी हां! प्यार दोनों तरफ से धीरे-धीरे लिए गए उन तमाम छोटे-छोटे क़दमों से बनता है जो एक साझा ज़िंदगी बनाते हैं.

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आखिर प्यार सिर्फ सहूलियत से किया जाए तो भला कैसा प्यार!

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Take the compliment!

World remembers worst of the actors and forgets best of the critics.     

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Well, I am not doubting the importance of critics. I mean a critic who is knowledgeable and gives inputs to improve your work or further your domain is a great value-addition. However, some people will always comment on your work without the sincerity and bona fide intention required behind it.

Interestingly, some of them will do so because they want to gain attention – from you, and from those who are paying attention to your work. These critics (rather commenters) are actually ‘waanabes’ who want to do what you are doing or wish to get what you are getting. So when such people comment…

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…take it as a compliment that ‘you are doing a good job’. 🙂 

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जो कभी कहा नहीं.

कुछ लोग सहते हैं पर…कहते नहीं.

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दुनिया में हर किसी का अपना संघर्ष है, और हर किसी के लिए संघर्ष की अपनी परिभाषा. और इसीलिए ये तय करने का हक़ किसी को नहीं कि किसका संघर्ष कम है और किस का ज़्यादा. और हां! सबकी संघर्ष करने की क्षमता भी अलग होती है और उसकी तक़लीफ़ महसूस करने की शिद्दत भी.

इसी तरह, एक बात और अलग होती है – कुछ लोग बता के संघर्ष करते हैं, और कुछ लोग संघर्ष कर के भी बता नहीं पाते. ऐसे लोगों को न तो संघर्ष के दौरान सहानुभूति मिलती है और न ही संघर्ष पूरा होने पर तालियां. इनकी सिसकियां इसलिए सुनाई नहीं देतीं क्योंकि बाहर बहुत शोर है उनका जो…

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…सिर्फ कहते हैं पर…सहते नहीं.

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दरअसल मोहब्बत.

ज़िंदगी की सबसे बड़ी नेमत है कि आप जिस के ‘मुरीद’ हों उसकी ‘मुराद’ भी हों.

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अगर समझने में मुश्किल लगा हो तो यूँ कह लें कि ये बड़ी ही नायाब बात है कि ‘किसी रिश्ते में दोनों तरफ से बराबर की कशिश हो’. अक्सर दोतरफ़ा रिश्तों में भी भले ही इक़रार दोतरफ़ा होता है पर क़रार एक का ज़्यादा जाता है और दूसरा पास तो होता है पर उतना नहीं होता कि ‘साथ’ हो. जी हां! इसीलिए कामयाब मोहब्बत में दोनों तरफ से मोहब्बत ही नहीं, एक जैसी शिद्दत की भी दरकार होती है.

और, लोगों की समझ से उलट, ये कमाल रिश्ते की शुरुआत में नहीं होता बल्कि उसी शख्स के साथ रिश्ते की दूसरी पारी में होता है. जी हां शुरु शुरु की दिलचस्पी और बेक़रारी एक दूसरे की तरफ जितना खींचती है उतनी ही जल्दी एक दूसरे में ‘जो सोचा था’ वो ‘ना पा सकने’ की वजह से दूर भी कर देती है. वो तो जब दो लोग एक दूसरे को जानने के बाद चाहने लगते हैं तब दरअसल मोहब्बत शुरु होती है.

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और हां…कभी कभी…नहीं भी होती. 🙂 

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Breaking bad?

For most of us, our life has become a self-perpetuating chain of avoiding consequences.     

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Well, you make a wrong action and there is a consequence. And then to avoid that consequence you make another action. And then these two consequences merge and make ground for your next action. Yes, that’s about it. You get trapped in that loop of ‘action – consequence – action’ for a very long time.

You know what! One day, you will have to break this loop or else it will consume your life. And the only way to do that is to, for once, not do any action to avoid a consequence. If, in your heart of hearts, you believe that you deserve that consequence then don’t avoid it. Accept that consequence.

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Yup! That’s the only way to break that chain. Think about it.

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