Gratefully yours!

In life, never forget those who stood by you when it mattered.     

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Some people don’t hug you tight or wish you bright. They don’t meet you often or call you even. They don’t give you gifts or accompany on your drifts. They don’t send you jokes or respond to your pokes. They don’t make promises or sing your praises. Yet…they are more special than the ones who do all this.

And what makes them special is that they stood by you when you needed it the most. They did it quietly but firmly. They never said big things, they did those small things which no one else did. They were the ones who held you without even touching you. They were the ones who backed you so you can be back.

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Never be ungrateful to them. You stand today, because they stood by you.

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Be back!

At times you know you are better than the guy who won. And that…it’s not over yet. 

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Sometimes you lose to someone, not on merit but on circumstance. You run out of luck at the time when it matters the most, and from then onward, the roll of the dice just doesn’t go your way. And though you keep trying to have a foot in the door, by then, the other guy has grabbed his chance.

And then you see him celebrate. You see him take a bow and sign off with the applause that you know you rightfully deserved. And a part of you sobs quietly in the noise of firecrackers, unnoticed and undone. But then, you lift your face up, look at the heavens, and tell the guy up there…

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… “I will be back”.

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उम्मीदें और कोशिशें

उम्मीद बहुत बड़ी चीज़ है. वो नतीजे पक्का नहीं करती पर कोशिशें ज़िंदा रखती है.

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और वैसे भी हमारे हाथ में कोशिशों के अलावा है ही क्या? नतीजे तो यूं भी इस बड़ी सी क़ायनात के पेचीदा से जाल में न जाने कितने पहलुओं और इत्तफ़ाक़ों के आपस के तालमेल से बनते हैं. इसीलिए ‘नतीजों’ से जुड़ना मतलब मायूसी मोल लेने का शर्तिया तरीक़ा.

लेकिन ‘कोशिशें’ हमारी होती हैं. ये हमारे हौसलों से निकले हुए वो फैसले हैं जिन्हें हमने निभाना तय किया है हालात और वाक़यात के परे. इन कोशिशों पर हमारा इख्तियार है. इन्हें हमसे छीनने के लिए दुनिया भले ही कुछ भी कर ले हम उस पर भारी ही पड़ेंगे. 

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इसलिए आइये इन ‘कोशिशों’ से जुड़ें. और उसके लिए…’उम्मीद’ क़ायम रखें.

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Success defined!

Have your definition of success, beyond the sponsored ideas floating around  

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They say “success is a relative term”. Yup it sure is; and it is also dynamic. But that’s not a problem. The problem is that now it is also becoming a ‘sponsored term’. In a world dictated by commercial entities, our lives are constantly nudged by their messages. And that’s where things get messy.

These messages create notions of ‘success’ that suit their creators’ intentions best. And here we are, all the time stimulated by this sponsored content, continuously subscribing to these changing notions and thus chasing newer possessions, designations and experiences; only to end up disillusioned.

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Yup! Stay true to your definition of success. It will keep you sane and focused.

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ज़रा तैयारी से आइये ना

अधीर हो कर अधूरे बनने के बजाए पहले धीर हो कर आधार बनाना अच्छा.

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पता नहीं इन दिनों सबको क्या जल्दी है – कुछ बनने की…कुछ बनाने की…दुनिया बदलने की…नाम कमाने की…कुछ कर दिखाने की. तभी तो देखिये ना, आजकल लोग अधपके हुनर को ले कर निकल जाते हैं बेचने के लिए, कभी शब्दों के घुमाव से, कभी चेहरे के खिंचाव से, और कभी जुगत या बरताव से.

अरे मैं बेचने के खिलाफ नहीं हूं, और ये भी समझता हूं कि सामान हो या हुनर – दिखाना तो ज़रुरी है. आखिर सच तो ये है कि हर हुनर को किसी तरह के बाज़ार का हिस्सा तो होना ही पड़ता है. मगर ज़रा तैयारी से आइये ना, तजुर्बा लीजिये या हुनर को तालीम की हांडी में पकाइये ना, ज़रा गहरे जाइये ना.

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क्योंकि कला की गहराई ही तो अलग करती है कलाकारों को…कलाबाज़ों से.

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फांस और टीस

फांस भले ही निकल जाए, टीस धीरे धीरे ही जाती है.

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तक़रीबन हर इंसान का एक ऐसा दौर आता है जब उसके दोस्त उसकी तक़लीफ़ की तरफ बेपरवाह हो जाते हैं, उसके रिश्तेदार उसके हालात की तरफ मज़ाकिया, और उसके अपने परिवार वाले उसके किसी मर्ज़ से परेशान. ऐसे में कुछ वक़्त की कड़वाहट तो वाजिब है पर हमेशा के लिए मन उठा लेना वाजिब नहीं.

ऐसे दौर को ज़िंदगी के एक अलग पहलू को देखने का मौका समझिये. ये दौर आपको नई बातें नई तरह से सिखाएगा. और हां! ये याद रखिये कि चाहे आपने किसीके लिए कितना भी क्यों ना किया हो, कोई आपका साथ देने के लिए ना तो फ़र्ज़ से बंधा है और ना क़र्ज़ से. इसलिए ‘साथ ना देने’ को वादाख़िलाफ़ी ना समझिये.

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या यूं कह लें कि टीस भले ही धीरे धीरे जाती हो…फांस पकड़ के मत रखिये.

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नई परछाइयां

अपनी परछाइयों से बचने के लिए अंधेरे में चले जाना सही हल नहीं है.  

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कहते हैं इंसान का गुज़रा वक़्त हमेशा उसके साथ परछाइयों की तरह चलता है. सच ही तो है! आपके गुज़रे कल की बेवकूफियां, गलतियां और नाकामियां कभी पीछा नहीं छोड़तीं. पर ये बात जब तक इंसान को समझ आती है तब तक वो इतना आगे आ चुका होता है कि वापिस जा कर कुछ बदल भी नहीं सकता.

ऐसे में बेचैनी के साथ ही एक तरह की बेबसी का भी एहसास होता है. नहीं सूझता कि क्या करें? बदल सकते नहीं, और निजात पाना भी मुमकिन नहीं. इसी मुश्किल में हम में से कुछ ऐसे ग़लत रास्तों पर मुड़ जाते हैं जहां जाने से वो ध्यान भटका के कुछ देर भूलने की तरक़ीब तो ढूंढ ही लेते हैं. पर वो नहीं समझते कि…

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अंधेरे में पुरानी परछाइयों से तो बच गए, पर उस वजह से जो नई बन रही हैं उनका क्या!

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बात में वो ‘बात’ तब ही आती है

सुनने वाला सिर्फ इज़हार ही नहीं, क़िरदार भी देखता है.  

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जब आपने जो ‘माना’ है वो कहते हैं तो सिर्फ सुनने वाले के कानों तक पहुंचता है. जब आपने जो ‘जाना’ है वो कहते हैं तो सुनने वाले के दिमाग तक पहुंचता है. और जब आपने जो ‘जिया’ है वो कहते हैं तो सुनने वाले के दिल तक पहुंचता है. इसीलिए तो अगर एक ही बात को अलग अलग लोग कहें तो अलग अलग असर होता है.

दरअसल बात ये है कि बात में वो ‘बात’ तब ही आती है जब वो आपके ज्ञान से नहीं आपके बोध से निकली हो. और बोध तो उसी को होता है जिसने किनारे पर खड़े हो कर देखा भी हो और कूद कर तैरा (या डूबा) भी हो. जब वो शख्स उस बारे में बात करेगा तो उसके लफ्ज़ भी बोलेंगे, हाव-भाव भी, और उसका…पूरा वजूद भी.

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ऐसा है जनाब! उधार के ज्ञान से उद्धार नहीं हुआ करता.

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अपने साथ

जब सारी दुनिया आप के खिलाफ खड़ी हो तब अपने साथ खड़े रहिये.

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मुझे तब बुरा नहीं लगता जब दुनिया किसी के खिलाफ खड़ी होती है, मुझे बुरा तब लगता है जब लोग खुद अपने साथ खड़े नहीं रहते. दुनिया का क्या है! उसके लिए आपके खिलाफ या साथ खड़े होना कोई जज़्बाती या उसूली बात ना हो कर बस ‘फ़िलहाल’ का फैसला होता है, हालात के मद्देनज़र.

पर भला ये क्या बात हुई! जब दुनिया आप के साथ नहीं और हालात आपके हाथ नहीं, तब ही तो आपको आपकी सबसे ज़्यादा ज़रुरत है. ये क्या कि आप भी खुद से दूर ग़ैरों के साथ जा बैठे और अपनी बेचारगी पर फ़िकरे कसने और टेढ़ा मुस्कुराने लगे. अजी उठिये, और इस तरफ आ कर बैठिये.

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मुश्किलों में जब अपनों का साथ नहीं छोड़ा जाता, तो फिर…’अपना’ क्यों?

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जड़ों से बिछड़ कर

अपनी जड़ों से बिछड़ कर कोई भी सफर कभी पूरा नहीं होता.

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इंसान की फितरत है अपनी जड़ें तलाशना और उनकी तरफ लौटना. ये उसूल किसी किताब में नहीं लिखा क्योंकि ज़रूरत ही नहीं है. हम सभी इसे अपने अंदर कहीं गहरे में इतना साफ़ महसूस करते हैं कि कभी जिरह कर के किताबों में डालने की ज़रुरत ही नहीं पड़ी.

कुछ तो है कि जब किसी दूसरे शहर में अपनी शाम ढले तो दिल कुछ बैठ सा जाता है, कुछ तो है कि जब ग़म कुछ ज़्यादा बढ़ जाए तो अपने ही घर में बैठ कर इंसान कहता है  “मुझे घर जाना है”. ये कहां है जहां जाना है? ये क्या है जो बेआवाज़ पुकारता है? ये जड़ें हैं.

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सही कहा ना मैंने. वरना ये क्या है जो आप ये पढ़ते वक़्त महसूस कर रहे हैं?

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