दरख़्तों की तरह

ज़िंदगी में बदलाव होंगे ही, इसलिए… ख़ुद में ठहराव लाइए.

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हमारा अपनी ज़िंदगी पर काबू दरअसल एक छलावा है. अपने आपको एक दायरे में रख कर, उसमें कुछ क़ायदे बुन कर, और आस पास एक मुंडेर बना कर हमें लगता है हमारी ज़िंदगी हमारे काबू में है. पर सच तो ये है कि ये हमारा यक़ीं कम और गुमां ज़्यादा है. ये गुमां हसीन है और जरूरी भी, पर है तो ये गुमां ही.

क्योंकि जब ज़िंदगी अपने क़रतब दिखाती है तो हमें अचानक ये एहसास होता है कि हमारे दायरे कितने संकरे हैं, क़ायदे कितने कमज़ोर और मुंडेर कितनी छोटी. इसीलिये बाहर की बुनकारी की अलावा हमें एक और चीज़ करना चाहिए – अंदर की तैयारी. खुद को पुख़्ता करना ही एकमात्र तरीक़ा है बदलाव में बहने पर ‘बने रहने’ का.

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आइये दरख़्तों की तरह जड़ें बनाएं. वही हमें क़ायम रखेंगीं.

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The invisible cloak!

Sometimes irritating people pass off as stylish just because they have success on their side.    

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Success has an amazing way of changing people’s perceptions. It acts almost like a ‘seal of approval’ acknowledged universally. With its stamp on someone, suddenly the ‘same’ person begins to seem very ‘different’. Yup! Even the profane begins to look profound…even the frivolous begins to look fabulous.

And then begins what I call ‘alignment of idiocy’ – a cascading change of perceptions creeping into everyone’s mind. You see the story of ‘king with the new invisible clothes’ getting enacted on demand. Well, though seemingly it looks harmless, it all leaves virtues of ‘authenticity’ and ‘merit’ gasping.

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There is no doubt that success deserves respect. However, it doesn’t deserve…reverence.

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माज़ी और मैं

कभी कभी एक शख़्स के ज़रिये एक पूरा ज़माना याद आ जाता है.

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ज़िंदगी का बहाव इतना ताक़तवर होता है कि आप जिस दौर में होते हैं अपने वजूद को उसी से जोड़ कर देखने लगते हैं. आज जैसे हैं उसी को अपनी पहचान मानने लगते हैं. लेकिन फिर अचानक एक दिन गुज़रे कल का कोई चेहरा आप के सामने आता है और कहता है “पहचाना?”

और आप उस एक लम्हे में फिर उस दौर के मुख़ातिब हो जाते हैं. वो एक शख़्स आपको अपने माज़ी के साथ साथ बीते हुए कल के अपने ‘आप’ से भी मिला देता है. और आपको अचानक याद आ जाता है कि जो जिया था वो भी तो आपके होने का एक अहम आयाम है. आप जो थे वो भी ‘हैं’.                

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आखिर क़िताब के पलटे हुए पन्ने भी तो…क़िताब का हिस्सा होते हैं!

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पैसा और क़िरदार

इंसान पैसे से सामान ख़रीद सकता है सलीक़ा नहीं.

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देखा जाए तो पैसा मेहनत और बरक़त से ले कर कमीनेपन और वसीयत तक के कई तरीकों से एक शख़्स के पास आ सकता है. और पैसा हमेशा लायक़ी या नालायक़ी देख कर नहीं आता. अक्सर जब आता है तो आपको समझ नहीं आता कैसे आ रहा है, और जब नहीं आता तो आपको समझ नहीं आता कि क्यों नहीं आ रहा है.

ख़ैर कहीं से भी आये लेकिन जब पैसा आता है तो इंसान उसके इस्तेमाल से लेकर उसकी नुमाइश तक सब करता है. और ख़ास बात ये है कि वो ये जिस तरह से करता है उससे साफ़ नज़र आ जाता है कि उसके पास पैसा कैसे आया है. जी हां! लोग कहते हैं कि पैसा इंसान का क़िरदार बदल देता है. पर पता है सच क्या है?

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सच ये है कि पैसा इंसान का असली क़िरदार सामने ले आता है.

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सच कड़वा नहीं होता है

सच कड़वा होता है” – ज़रूर ये बात किसी सच्चे आदमी ने नहीं, किसी कड़वे आदमी ने कही होगी.

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दरअसल सच न कड़वा होता है और ना मीठा. सच सिर्फ…’सच्चा’ होता है. वो तो लोग उसे जिस तरह कहते हैं उससे उसमें कड़वाहट आ जाती है. और सच कहूं तो वो कड़वाहट भी इसी लिए आती है क्योंकि अक्सर सच बोलने वाले लोग सच कहते वक़्त अंदर से सच के लिए मोहब्बत से कम और झूठ के खिलाफ नफ़रत से ज़्यादा भरे होते हैं.

सच तो ये है कि सच इंसान सिर्फ तब बोलता है जब कोई झूठ उसके लिए मुश्किलें पैदा करने लगता है, वरना सच तो ये है कि वो सच बोलने वाला शख्स भी कई झूठ बोलता है. जी हां, जब तक सच अपनी बिसात से कम और झूठ की वजह से आई हुई परेशानी की वजह से ज़्यादा बोला जाएगा तब तक उसमें तल्ख़ी ज़्यादा ही मिलेगी.

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सच को मीठा होने के लिए अपने पाओं पर खड़ा होना सीखना पड़ेगा…झूठ का गिरेबां पकड़े बिना.

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आप इंसान हैं आख़िर

कभी कभी चीज़ें ग़लत हो जाती हैं. खुद को इल्ज़ाम देना बंद कीजिये.   

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हर काम में कई पहलू एक साथ आते हैं. सब पर ना तो आपका काबू हो सकता है और ना ही आपकी समझ. ऐसे में कभी कभी कोशिश करने पर भी कोई एकाध पहलू नज़र से छूट ही जाता है, और कुछ बार इत्तिफ़ाक़ से वही एक पहलू पूरी कोशिश के नाक़ाम होने की वजह बन जाता है.

और जब आपको पता चलता है तो ग़म कम और रंज ज़्यादा होता है. आप को लगता है कि आपसे ये चूक कैसे हो गयी! और बस फिर शुरू हो जाता है एक सिलसिला ‘रंज – नाराज़गी – ग़म’ का. अगर सच कहूं तो थोड़ी देर तो ये वाजिब है और ज़रूरी भी, लेकिन ज़्यादा खिंच जाए तो दर्दनाक़.       

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आप इंसान हैं आख़िर! ख़ुद से ख़ुदा होने की उम्मीद रखना बंद कीजिये.

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काम का रियाज़

आप जो भी काम करते हों, रोज़ उसका रियाज़ ज़रूर किया करें.

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रियाज़ से मेरा मतलब है अपने काम पर काम करना – उसे एक ‘ठोस सतह देने के लिए’ और ‘नए आयाम देने के लिए’. जी हां! ये दोनों चीज़ें साथ करनी पड़ती है – रोज़ पुराने को दोहराना पड़ता है और रोज़ नए को आज़माना पड़ता है. ये ‘जुड़वां काम’ रियाज़ कहलाता है. और ये हर काम का ज़रूरी हिस्सा है.

अगर आप अभी अपने काम में नए हैं तो ये ‘ज़रूरी’ है, और अगर अपने दायरे में आपका नाम हो गया है तो ये ‘बहुत ज़रूरी’ है. ऐसा इसलिए क्योंकि अफ़सोस की बात है कि अक्सर जब नाम हो जाए तो लोग रियाज़ बंद कर देते हैं! वो ये भूल जाते हैं कि ‘नाम’ को जायज़ साबित करते रहना भी एक फ़र्ज़ नुमा काम है.

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लोग यूं ही नहीं बड़े बन जाते! रोज़ छोटे-छोटे काम कर के बनते हैं.

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हौसला और सवाल

अगर आपका हौसला चंद सवालों से टूट जाता है तो दरअसल वो…हौसला था ही नहीं.

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अच्छे लोगों को अपनी नाज़ुक-मिज़ाजी को अपनी कमज़ोरी नहीं बनने देना चाहिए. भला इतनी भी क्या नज़ाक़त कि किसी ने थोड़ा पूछ लिया…थोड़ा छान लिया…थोड़ा खींच लिया और आप लगे सुलगने या सुबकने. अरे, लोग सवाल नहीं करेंगे तो आपको अपने हौसले को परखने का मौका और उसे मज़बूत करने का तरीक़ा कैसे मिलेगा. इसलिए सवालों से बचिए या घबराइए मत, उन्हें सुनिए और उन पर सोचिये.

लेकिन हां! एक बात और भी है. अगर आप सवाल पूछने वालों में से हैं तो आप भी याद रखिए कि ‘सवाल पूछने’ और ‘सवाल उठाने’ में फ़र्क होता है. अपने सवाल लोगों को बेहतर करने के लिए पूछिए ना कि उन्हें गलत साबित करने के लिए. क्योंकि जब दोस्त दूसरी तरफ के वकीलों की तरह बरताव करने लगे तो ठेस लगना लाज़मी है. इसलिए सिर्फ सवाल मत उठाइये, जवाब ढूंढ़ने की क़वायद का हिस्सा भी बनिए. 

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सवाल बड़ी उम्दा चीज़ हैं. पर अफ़सोस, ना ढंग से सुने जाते हैं और ना ढंग से पूछे.

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‘ख़्वाब’ की शक्ल

जब आखों में ख़्वाब हों तो अक्सर नज़र कमज़ोर हो जाया करती है.

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जब कोई चीज़, शख्स या मक़सद ‘ख़्वाब’ की शक्ल ले ले तो हमारा नज़रिया पूरी तरह बदल जाता है. आखिर ख़्वाब की कशिश ही निराली होती है! हर चीज़ ख़ूबसूरत, हर बात मुमकिन, हर कोशिश लाज़मी और हर तरीक़ा जायज़ दिखने लगता है. और बस यहीं पर…भूल के बीज पड़ जाते हैं.

दरअसल बाहर कुछ नहीं बदलता, होता ये है कि ख़्वाब हमारी आखों को बदल देते हैं – एक हसीन सी परत दे देते हैं उन्हें – जिसकी वजह से हमें इंतेख़्वाब की गई चीज़ की सिर्फ खूबियां ही दिखने लगती हैं और ख़ामियां छुप जाती हैं. और यही भूल ख़्वाब के पूरे होने में सबसे बड़ी अड़चन बन जाती है.     

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ख़्वाब ज़रूर देखिये! पर उन्हें पूरा करने के लिए नज़र को और पैनी रखिये.

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बाद की बेहतरी

अगर आज मुश्किल फैसले ले लिए जाएं तो कल के मुश्किल हालात टाले जा सकते हैं.

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अधिकतर लोग ‘बाद की बेहतरी’ के बजाए ‘आज की आसानी’ चुनते हैं, और फिर ये उम्मीद करते हैं कि आने वाला कल बढ़िया होना चाहिए. ज़िंदगी भी मुस्कुराती होगी – ‘कभी’ खुशी ‘सभी’ नहीं मिलती, ‘अभी’ शिकन चुनो कल ‘तभी’ मिलती है.

तो आज ज़रा परेशान हो कर… कुछ चैन गवां कर… छोटी तक़लीफ़ बढ़ा कर… थोड़ा दुख लिवा कर, वो फैसले ले लीजिये जो आप जानते हैं कि आसान तो नहीं हैं पर कल के लिए सही हैं. वरना ये सब कल तो झेलना ही है…वो भी शायद ज़्यादा.

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और किसी भी दिन ‘चुनी हुई’ मुश्किल ‘आई हुई’ मुश्किल से आसान ही होती है.

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