दिमाग़ नीम-बेहोशी में!

इंसान के ख़्वाब उसके सच का एक हिस्सा बयां कर देते हैं.

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यहां मैं उन ख़्वाबों की बात नहीं कर रहा जो इंसान जागती आखों से तसव्वुर में बुनता है. मैं यहां उन ख़्वाबों की बात कर रहा हूँ जो उसे बंद आखों में आते हैं और उसे अचानक चलती नींद से बाहर फेंकते हैं – बदहवास… हांफता… पसीना पसीना सा. ये सपने उस हदस और हवस के गवाह हैं जो हवास में बाहर नहीं आ पातीं.

कहते हैं ख़्वाब में इंसान का दिमाग़ नीम-बेहोशी में…पगलाया सा…खुद में गहरे मौजूद ख़यालों और दबे सवालों को उछालता है, और उस खेल में ये छिटक कर आपके होश की सरहद के नज़दीक आ कर गिरते हैं. और उस हाशिये पर ख़्वाब बनते हैं, जो एक झलक देते हैं आपको आपके भीतर मौजूद एक अनजानी दुनिया की.

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उस झलक को ध्यान से देखिये, आपको मसले मिलेंगे…सुलझाने के लिए.

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ज़ब्त जज़्बात

आजकल के घरों में तकरार की जगह एक तल्ख़ सी खामोशी पसरी रहती है. 

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अब लोग पढ़े लिखे हैं, घरों पर सलीक़े से पेश आते हैं. इसलिए अब वो लड़ना झगड़ना जहालत समझते हैं. अब वो घूर कर नहीं देखते, अनाप-शनाप नहीं बकते. आखिर तमीज नाम की भी कोई चीज़ होती है भाई! भला ये क्या बात हुई कि मुंह खोल कर दिल में जो था वो उगल दिया!

इसीलिए अब वो चुप हो जाते हैं या सिर्फ ज़रुरी बातें करते हैं. वो एक दूसरे को देखना बंद कर देते हैं और एक दूसरे के पास से ऐसे गुज़र जाते हैं जैसे कोई अजनबी हो राह में. वो जज़्बात और बात दोनों पर ज़ब्त रख कर अपने कामों में लग जाने का ढोंग करते हैं, चुप्पी ओढ़े हुए.    

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शायद इसी को शमशान का सन्नाटा कहते हैं – रिश्तों की खुदती कब्रों के दरमियां का.

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काम की नाक़ामियां!

अपनी नाक़ामियां खंगालिए, आपको अपनी ख़ामियां मिलेंगी.

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अब इन ख़ामियों को मेज़ पर तरतीब से जमाइए. फिर दराज़ में से कलम और एक कागज़ निकालिए. अब दोनों कोहनियों को मेज़ पर रख, ठोड़ी अपनी हथेलियों पर टिका कर उन ख़ामियों को एक एक कर के गौर से देखिए और उनकी फ़ेहरिस्त बनाइए.

अब या तो आखें बंद कर के या खिड़की से बाहर आसमान को ताकते हुए सोचिए – सोचिए उनमें से हरेक ख़ामी के पीछे की वजह पर और उसको हटाने के तरीकों पर. अब एक एक कर के करीने से लिखते जाइए ख़ामियों के सामने वजहें और तरीक़े.

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लीजिये! हो गया तैयार नुस्ख़ा आपकी अगली क़ामयाबी का! 🙂

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एक संजीदा मामला!

कुछ लोग बेफिक्र होने का मज़ा ले पाते हैं क्योंकि कोई उनके हिस्से की संजीदगी ढो रहा है.  

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बड़ा अजीब क़िस्सा है ज़िंदगी का – उलझा हुआ सा, और थोड़ा ज़ालिमाना भी! जो बेपरवाह है उसे लापरवाह होने की छूट है. उससे किसी को शिकायत नहीं है क्योंकि उससे किसी को उम्मीद ही नहीं है. और वो इस बात का भरपूर फ़ायदा उठा कर अपने हक़ का ले भी लेता है और अपने फ़र्ज़ से फ़ारिग भी रहता है.

और जिसमें संजीदगी है वो लगा हुआ है चीज़ों को संभाले रखने में. उसे अपना फ़र्ज़ भी निभाना है और दूसरे के हिस्से का भी. और वो ऐसा ना करे तो दोतरफ़ा मुसीबत – लोगों की शिकन भी झेले और अपने ज़मीर की चुभन भी. इसीलिए वो जुटा रहता है मीनारों को संभालने में कि कहीं गुम्बद गिर ही ना जाए.      

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कभी कभी लगता है…शायद अच्छा होना…इतना भी अच्छा नहीं होता.

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बीच का बन्दर!

हम बीच में हैं ना…इसीलिए हमेशा पिसते रहते हैं!

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वो जो हमसे नीचे हैं उनके पास इतना है ही नहीं कि खोने का डर हो, और वो जो हमसे ऊपर हैं उनके पास पाया हुआ इतना है कि कोई परवाह ही नहीं. और फिर हम हैं, जिन्होंने इतना तो जुटा लिया है कि खोने का डर हो, पर दूर दूर तक इतना नहीं कि परवाह ना रहे. अजीब सा हाल है.

बस इसीलिए हम फिक्रमंद रहते हैं कि ये हो गया तो क्या होगा, ऐसा कर दिया तो क्या होगा, यूं कह दिया तो क्या होगा! हमेशा सहमे हुए रहते हैं हम, ज़िंदगी के उतार चढ़ाव से वाक़िफ़, अपनी मजबूरियों से मुख़ातिब. और बस इसी बात का फ़ायदा हमारे नीचे और उपर के लोग उठाते हैं.       

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तभी तो एक बेशर्मी से और दूसरा ताक़त से हमारी आवाज़ दबा देता है.

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नए साल का अहद

इस बार न कोई वादा कीजिये, न इरादा कीजिये, बस जो करना चाहते हैं उसे ‘और ज़्यादा’ कीजिये.

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दूसरे लफ़्ज़ों में कहूं तो इंसान अपने यक़ीन से नहीं अपनी आदतों से जीता है. इसीलिए इंसान को मंसूबे नहीं आदतें बनानी चाहिए. जहां मंसूबे इंसान को मक़सद से जोड़ते हैं वहीं आदतें इंसान को अमल से. और सच तो ये है कि अमल से ही ज़िंदगी का नक़्शा बनता है और मक़सद तो उस नक़्शे पर सिर्फ एक नुक़्ता होता है.

इसीलिए इस साल बड़ी बड़ी बातें करने के बजाए आइये कुछ छोटे छोटे कामों को सोच कर चुनें और फिर उन्हें लगातार करें – वो छोटे छोटे काम जो आपके मक़सद से ही निकल कर आए हों और जो साथ जुड़ कर एक बड़ा सा कदम बनाएं उस मक़सद की तरफ. पर हां! ऐसा करने में आपको बहलाव का सुख नहीं मिलेगा.

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अब ये तो आप को ही तय करना है कि आपको बहलाव का सुख चाहिए या…बदलाव का!

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आपने ज़िंदगी को जिया ना?

ज़िंदगी में सिर्फ ये अहम नहीं है कि आप ने ज़िंदगी से क्या लिया और उसे क्या दिया, बल्कि ये भी अहम है कि आपने ज़िंदगी को कितना ‘जिया’.

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आपने बादलों के आकार देखे कि नहीं! आपने सितारों के परिवार देखे कि नहीं! आपने रंगों के महीन फ़र्क महसूस किये ना! आपने खुशबू के क़िस्म पहचान लिए ना! आपने चेहरे पर हवा की छुअन पाई ना! बारिश कभी आपकी हथेली पे टप्पा खाई ना! आपने उगते चाँद से बात की ना! आपने डूबते सूरज को बिदाई दी ना! आपने रात में अलाव तापा ना! आपने टहनी से चीज़ों को नापा ना!

लहरों ने आपके पाँव चूमे ना! आप सर्दी के कोहरे में घूमे ना! आपने पेड़ों से आम तोड़े ना! आप खेतों में जी भर दौड़े ना! आपने पहाड़ों पर आवाज़ लगाई ना…और हाँ! वो लौट कर आई ना! आपने समंदर को आसमां से मिलते देखा ना! आपने कलियों को खिलते देखा ना! आपने सन्नाटे के सुर सुने ना! आपने फ़ूलों से गहने बुने ना! आपने पेड़ों को नाचते देखा ना! आपने पंछियों को बांचते देखा ना!            

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आपने ये सब किया ना? क्योंकि ज़िंदगी का बाक़ी सब लेन-देन तो सिर्फ इसलिए था ताकि आप ये सब बेफ़िक्री से कर सकें.

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जड़ों के और नज़दीक

अब तो जो क़ायम रहेगा वही कामयाब रहेगा.

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बड़ा ही अजब दौर है ये – बेचैन…लगातार बदलता हुआ…हमेशा खुद से दौड़ लगाता हुआ. रोज़ नए ख़याल… नए सवाल… नए ईजाद… नई आमद. और रफ़्तार ऐसी कि कुछ नया पूरा आने से पहले ही आधा बाहर हो चुका होता है. अरे, ग़लत न समझिएगा! मैं इस दौर की शक़्ल बयां कर रहा हूं उसके तौर से शिक़वा नहीं.

और ऐसे दौर में जब सब बदल रहा हो तो जड़ों के और नज़दीक जाना होता है… अलिफ़-बे के सबक़ फ़िर खंगालने होते हैं… क़ायम रहना होता है हुनर के अपने हिस्से पर. और हां! ये अंधी ज़िद या ऊपरी यक़ीन से नहीं होता. ये तो अपने यक़ीन की तफ़तीश और फ़न की तवज्जोह से होता है. जी हां, ये नया दौर है.                                  

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और इस नए दौर में क़ाबिल वो है जो…क़ायम है.

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नाज़ुक रिश्ता

एक नाज़ुक रिश्ता संभालने के लिए दो मज़बूत लोग चाहिए.

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लोग अक्सर रिश्ते को बना तो लेते हैं पर निभा नहीं पाते. खैर उनकी भी गलती नहीं होती, क्योंकि रिश्ते को बनाने और निभाने के लिए बिलकुल अलग तरह की नीयत और काबिलियत लगती है. जहां बनाना ‘कशिश’ मांगता है वहीं निभाना ‘कोशिश’. जी हां! ये दो मुख़्तलिफ़ क़िरदार हैं जो एक ही शख्स में अक्सर नहीं मिलते.

लेकिन इसके अलावा एक और बात है जो निभाने वालों में ख़ास होती है – वो बड़े मज़बूत होते हैं. उनके जज़्बात भी इरादों की तरह पक्के होते हैं, ना कि वादों की तरह कमज़ोर. उनमें वफ़ादारी होती है अपने फैसलों की तरफ. इज़्ज़त होती है खुद से किये गए क़ौल की तरफ. और ये ताक़त उनमें जुनून से नहीं सब्र से आती है.                        

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सिर्फ ऐसे दो लोगों के हाथों में ही एक नाज़ुक रिश्ता महफूज़ रह सकता है.

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साझा सच

इंसान के अंदर के लावे को सिर्फ बुलावे का इंतज़ार रहता है.

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तमीज़ और तहज़ीब से बंधी दुनिया में लोग बेहतर तो नहीं हुए लेकिन बेहतर होने की अदाकारी ज़रूर सीख गए. अच्छा बोलने और अच्छा दिखने की बाक़ायदा तैयारी कर के आते हैं लोग आजकल – हर लफ्ज़ तोला हुआ, हर बाल संवरा हुआ. ऐसे हैं आज हम – बिलकुल फरिश्तों की तरह के पेश आते पढ़े-लिखे लोग.

पर सच कुछ और है. गुज़रे किसी भी दौर की तुलना में आज हम कहीं ज़्यादा दोहरी ज़िंदगी का शिकार हैं. हमारे अंदर दर्द है…ग़िला है…ग़ुस्सा है – पर सारा दबा हुआ, इतना गहरे में कि होश में निकलने का मौका न बने. पर फिर अचानक कोई वाक़या होता है, और बाहर आ जाता है सब – हमारा उबलता उफनता ‘सच’.

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आइये उस लावे को गौर से देखें, बिना किसी भुलावे के. शायद बदलाव की कोई सूरत नज़र आ जाए.

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