Settle it now.

At some point, you have to begin to look at your compromises as your choices.

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There are times when you have to comply with the call of the circumstance, and make a choice that otherwise you wouldn’t have made. And you make that compromise as there is ‘something at stake’ which, in the present circumstance, is more important than your like-dislike or comfort-discomfort.

However, the problem starts when the circumstance changes but you get locked in the choice. You can’t bear anymore because now there is no good reason to do so, and you can’t break free either because you have built an entire apparatus around the choice that you can’t afford to dismantle.

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In such case, the only way out is to be ‘all in’. See it as your own, and settle.

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The Plot!

If you don’t know someone’s story, don’t judge their character.

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People become what they become through an assembly line of coincidences and experiences. Yes, their choices do play an intervening role yet there is still a lot that is beyond their scope of free-will – their parents, their backgrounds, their early influences, their acquaintances or their circumstances.

And though they always have a choice to make and an option to click, even their options are limited by the roll of the dice. Yup! ‘What they become’ is rooted in ‘where they come from’ and ‘what came to them’. That’s why it is important to not make opinions about people without knowing their context.

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After all, in any script, characters always emerge from the plot.

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इस्तेमाल!

अपनी बनिया-बुद्धि चीज़ों के साथ लगाइए, लोगों के साथ नहीं.    

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कुछ लोग आपसे मिलते ही सोचने लगते हैं कि आपका इस्तेमाल कैसे करें. वो पहले लम्हे से आपको किसी खांचे में डालने या ढालने की ज़हनी उधेड़बुन और उठापटक शुरु कर देते हैं – कितने काम का है? किस काम आ सकता है? कैसे फायदा उठा सकते हैं? कितना फायदा उठा सकते हैं? और कितने में?

माना हम इंसानों की साझा-हस्ती है, इसलिए एक दूसरे के काम आना और एक दूसरे से काम लेना ज़रुरी भी है और जायज़ भी. सच तो ये है कि इसी हक़ीकत पर परिवार से ले कर कारोबार तक सब चल रहे हैं. पर भला ये क्या बात हुई कि आप इंसान को इंसान से ‘पहले’ इस्तेमाल की चीज़ की तरह देखने लगें!

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याद रखिये, इंसान अपना ‘सबसे उम्दा’ तब देता है जब क़ीमत मिलती भी है और…होती भी.

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ज़िंदगी!

ज़िंदगी को किसी एक नज़रिये से देखना ज़िंदगी की तरफ नाइंसाफ़ी है.  

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ज़िंदगी सबके लिए अलग है – किसी के लिए सतत चलने वाला संघर्ष, किसी के लिए ना रुकने वाला जशन, किसी के लिए कुछ बड़ा बनाने का मौका, किसी के लिए छोटे लम्हों की एक लड़ी, किसी के लिए खुद को समझने का अवसर, किसी के लिए तजुर्बे करने की आज़ादी. किसी के लिए बक़ाया चुकाने का फ़र्ज़.

किसी के लिए चलते रहने की क़वायद. किसी के लिए दुनिया देखने का टिकट, किसी के लिए याद रखे जाने की कोशिश. सच तो ये है की इनमें से हरेक नज़रिया सही है पर ‘वही’ सही हो ऐसा नहीं है. आइये अपनी ज़िंदगी को किसी अलग नज़रिये से भी देखें. क्या पता उसे मुकम्मल तौर से जीने का तरीक़ा मिल जाए!

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क्योंकि हम ज़िंदगी जीते ही कहां हैं, हम अपना नज़रिया ही तो जीते हैं.

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जज़्बात बहुत ख़ास होते हैं

इतना भी जज़्बाती नहीं होना चाहिए कि जज़्बात से ही चिढ़ हो जाए.  

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कुछ लोग हर बात में जज़्बात ले आते हैं. वहां भी जहां जज़्बात की न ज़रुरत होती है न जगह. पता नहीं किस अहमक ने उन्हें कह दिया होता है कि “हमेशा दिल से जियो”. अच्छा! तो दिमाग क्या नुमाइश के लिए दिया गया है! अरे इंसान को दिल-ओ-दिमाग़ से जीना चाहिए.

ये और ज़रूरी इसलिए है क्योंकि दिल मासूम और नाज़ुक होता है. उसे सहेज कर न रखा जाए तो वो मायूस हो जाता है और फिर महसूस करने से भी परहेज़ करने लगता है. और फिर शुरु हो जाती है अपने ही जज़्बात के साथ अंदरुनी कश्मकश, जिससे कुछ हासिल नहीं होता.                 

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जज़्बात बहुत ख़ास होते हैं, उन्हें हर आम बात में मत लाया कीजिए.

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कुछ जुर्म सा

मुड़ के देखो तो हर ‘अपने’ की तरफ आपका कुछ जुर्म सा निकलता है.

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और अजीब बात ये है कि वो जो गिनाते रहे अक्सर वो आपको अपना जुर्म नहीं लगता. आपका जुर्म तो सिर्फ आपको पता होता है. सिर्फ आप जानते हैं ऐसी कौन सी बात है जिसके लिए आप अपने आपको अभी तक माफ़ नहीं कर पाए हैं. और हां, कई बार वो बात ऎसी होती है जो वो भूल गए होते हैं या जो उन्हें पता ही नहीं होतीं.

पर जानते हैं क्या इससे ज़्यादा दुख देता है? – जब वो ‘अपने’ आपकी ज़िंदगी से जा चुके होते हैं. ऐसे में जो लगता है ना वो बयां करना मुमकिन ही नहीं. लगता है काश कोई घड़ी के कांटे उलटे घुमा दे ताकि आप ज़िंदगी का वो लम्हा मिटा या बदल दें. पर ऐसा नहीं हो सकता. तो फिर क्या करें? उस एहसास को जिएं और सीखें.           

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ताकि आने वाले कल में फिर बीते हुए कल में जा कर मिटाने के लिए कुछ कम बचे.

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Failing twice!

Most of us fail twice – first when we fail, and then when we fail to utilize failure.

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Failure can have immense utility, but most of us are so bogged down by the futility surrounding it that we simply fail to see the utility. Of course, prominently, failure introduces us to our shortcomings and flaws, which can then help us include the cycle of ‘introspection and retrospection’ in our work ethic.

But there is more to it – It can relieve us of the excruciating expectation of always being the best, it can give us the lightness of being imperfect, it can give us opportunity to rationalize our self-image, it can help us go back to a learner’s mindset, and it can let us stretch…yawn…and smile at others around us.

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Yup! When you don’t let failure break you, then it goes on to make you.

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ये क्या पहेली है भला!

कभी कभी आपको किसी से शिकायत नहीं होती पर आप सबसे ख़फ़ा होते हैं.

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कई बार पता ही नहीं चलता कि जो अभी महसूस हो रहा है उसकी वजह क्या है या कौन है. और ‘क्यों’ का तो छोड़िये कई बार ये भी समझ नहीं आता कि महसूस हो क्या रहा है. बेचैनी ऐसी कि सितारे नोच लाएं या तोड़ दें जहान की हर शय. पर कोई सबब पूछ ले तो लगें रुक रुक कर कुछ बड़बड़ाने. ये क्या पहेली है भला!

दरअसल इंसानी मन की अपनी एक अलाहदा अक्ल है जो दिमाग की ‘एक बटा दो…दो बटे चार’ वाली अक्ल के दरमियां नहीं आती. इस अक्ल के अलग क़ायदे और जुदा उसूल हैं. मन में सब इकट्ठा होता जाता है और हर आने वाली नई बात किसी पुरानी बात से जुड़ कर और उसमें कुछ जोड़ कर जमा और ज़ाहिर होती है.      

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इस ‘जोड़’, ‘जमा’ और ‘ज़ाहिर’ होने की समझ ही इस उलझन का हल है.

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दो बातें!

ज़िंदगी में सेहत और सोहबत का ख़याल रखिये. बाकी सब आगे पीछे आ जाएगा.

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सेहत की कोई भी जिद्द-ओ-जहद बड़ी ही तनहा और बेचारगी से भरी होती है. दरअसल आपको अचानक से अपने फ़ानी होने का एहसास हो जाता है. और आप अपनी ताक़त और क़ुव्वत को क़ुदरत और क़िस्मत के आगे अपने सामने ‘यूं’ ताश के पत्तों की तरह बिखरता हुआ देखते हैं. इसलिए इसे संभालिये और सहेजिये.

सोहबत का भी ऐसा ही है. जब सब ठीक चल रहा हो तो इंसान भूल जाता है कि वो जो भी है उसमें उसके अलावा बहुत लोगों का हाथ है – कुछ जिन्होंने उसे ज़मीन दी, कुछ जिन्होंने पर, कुछ जिन्होंने रहनुमाई, और कुछ जिन्होंने परवाज़ की दुआ. इन सब से जुड़े रह कर ही वो जो बना है वो बना रह सकता है.

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और पता है ये सब अक्सर कब समझ आता है? – जब ये नहीं रहते. ख़याल रखिएगा.

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जज़्बाती तौर पर मज़बूत!

ज़हनी काबिलियत जज़्बाती तौर पर मज़बूत हुए बिना किसी काम की नहीं.

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अब ये मत कहिएगा कि जज़्बाती लोगों का नाज़ुक-तबीयत होना तो एक तरह से तय है, क्योंकि मुझे ये पहले से पता है. पर खुद ही सोचिए ना! आज की रफ़्तार में गिरफ्तार ये दुनिया, जिसे ना तो वक़्त है और ना ही वास्ता, वो आपको नज़ाकत की रिआयत देगी? क्या वो आपको समझेगी? क्या आप से हमदर्दी या हमदमी रखेगी?

नहीं! भले ही आपको कुछ हमक़दम क़रीबी और थोड़े भलमनसाहत वाले अजनबी मिल जाएं, सच तो ये है कि अधिकतर ये कमज़ोरी ही साबित होगी. वो भी ऐसी कमज़ोरी जो आपकी ज़हनी काबिलियत और जीतोड़ मेहनत दोनों को कमअसर कर छोड़ेगी. और इससे बुरा क्या हो सकता है कि इंसान अपने जज़्बात से ही मात खा ले!

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जज़्बाती तौर पर मज़बूत बनिये. अब ये आपकी खुद की तरफ एक ज़िम्मेदारी है.

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