The happiness secret!

Happiness comes when you bring all the aspects of your life in harmony.

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You can’t chase happiness. In fact the more you chase it the farther it goes away. Yes, achievement can be strived for, joy can be arranged or thrill can be sponsored. But happiness? Nah! You can’t make it happen, you have to let it happen. It’s an offshoot.

It’s an effect that manifests in a life which has all its constituting elements in sync with each other, resonating effortlessly. Yes, it’s about balance. It is about a place for everything and everything at its place. It’s that fine tuning that is struck with clarity and will power.

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It’s not about pace and magnitude, it’s about the ratios and proportions.

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आपकी सबसे बड़ी ग़लती

अपनी ग़लतियों के लिए दूसरों को ज़िम्मेदार ठहराना आपकी सबसे बड़ी ग़लती है.  

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“अगर उन्होंने साथ दिया होता तो…?”; “अगर उसने वैसा न किया होता तो…”; “अगर उस वक़्त ऐसा न हुआ होता तो…” – ये सब इंसान के वो जुमले हैं जिनके पीछे वो अपनी कमियों को बड़ी अच्छी तरह छुपा लेता है.

क्योंकि मान लें कि आपके साथ ग़लत हुआ, तो भी इस बात का असर अपने काम और कोशिशों पर आने देने में आप का भी हिस्सा था. ये आपका चुनाव था कि आपने बाहर की हलचल को अंदर की बेचैनी बनने दिया.

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गौर से देखिये! आपकी नाकामी के पीछे कमज़र्फ ‘अपने’ नहीं, कमज़ोर ‘आप’ थे.

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तुझसे नाराज़ नहीं हैरान हूं मैं…

किसी से नाराज़ होने के लिए उसका नज़दीक होना ज़रुरी होता है. 

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अब आप किस से नाराज़ होंगे! कोई इतना करीब है भी अब आप के? अरे जनाब, अब हर रिश्ता शर्तिया है – आप उन्हें अच्छा महसूस कराओ तो वो आपके हैं, नहीं तो उसके हैं जो अच्छा महसूस कराएगा. ऐसे में जोखिम उठा पाएंगे आप कि किसी में गलत होने का एहसास छोड़ कर कुछ पल दूर चले जाएं?

पता चला आप गए और वो ना बुलाने आया और ना मनाने. और उस पे तुर्रा ये कि वही आप से ‘उस से नाराज़ होने’ के लिए नाराज़ हो गया. और चोट ये कि जब आप वापस लौटे तो पता चला कि आप बेगाने हो गए और कोई और अपना. यानि आप अपना मान कर नाराज़ हुए और अंजाम में अजनबी हो गए.   

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अजीब है ना! अब तो रिश्तों को ‘ना’ आज़माना ही उनके बने रहने की शर्त है.

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सुख-दुख का गणित

ये उम्मीद मत कीजिये कि दुख कम हो, ये कोशिश कीजिये कि उम्मीद कम हो.

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इंसान की फ़ितरत है कि वो जिससे जुड़ता है उससे उम्मीद भी जोड़ने लगता है. भले ही वो कितना भी कह ले कि वो किसी रिश्ते में ‘बिना शर्त’ है, पर सच तो ये है कि बार बार दोहराने से कोई झूठ सच लगने भले ही लगे पर सच हो नहीं जाता. सच तो ये है कि जैसे जैसे जुड़ाव बढ़ता है, उम्मीद भी बढ़ने लगती है.

और जब उम्मीद बढ़ती है तो आप ‘कितना मिला…कितना दिया’ का लेन-देन जांचने लगते हैं और नफ़े-नुक़सान का हिसाब रखने लगते हैं. और फिर शुरु होती है चिढ़, जो गुस्सा बनती है और फिर नफ़रत की तरफ जाने लगती है. और ये सब इसलिए होता है क्योंकि आप बढ़ती उम्मीद पर काबू नहीं रख पाए.      

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याद रखिये, सुख-दुख का गणित दरअसल ‘जुड़ाव’ और ‘उम्मीद’ का गणित होता है.

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प्यार का इम्तिहां!

मुश्किल दौर में सामने वाले में आई कड़वाहट के बावजूद साथ बने रहना भी प्यार है.

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एक दूसरे को सहन करना और झेलना लगभग हर रिश्ते का अहम हिस्सा है. क्योंकि जब दोनों में से कोई एक तकलीफदेह वक़्त से गुज़रता है तो उसके पास देने के लिए कुछ ख़ास बचता नहीं है. उलटा उसके भीतर जो दर्द इकट्ठा होता है वो सिर्फ कड़वाहट बन कर बाहर आता है.

ऐसे में दूसरे शख्स का ये फ़र्ज़ बनता है कि वो उस कड़वाहट को बाहर निकलने का मौका भी दे और उस दौरान मज़बूती से खड़ा भी रहे. पर हां! यहां ये समझना ज़रुरी है कि ये बात सिर्फ मुश्किल ‘दौर’ के लिए लागू होती है ना कि लगातार चलने वाले ज़हरीले ‘सिलसिले’ के लिए.

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और ये ‘दौर’ है या ‘सिलसिला’ – ये फ़र्क कर पाना प्यार का सबसे बड़ा इम्तिहां है.

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Losing what matters the most

When you lose trust in your closest people, it’s the biggest loss incurred.

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There are episodes in your life when you lose a lot, and that too in every sense. While most of what is lost can be quantified or measured, some of it you cannot measure but is actually…‘major’. It is the loss of ‘trust’ in the near & dear ones you ‘counted on’.

You always felt they would stand by you, in your thick and thin. You always thought that they would either shield you, support you or at the least soothe the hurt and the pain. But shockingly, they either witness like bystanders or ignore like strangers.

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That’s what makes you lose trust, and with it… most of what matters.

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सब से आला जानवर

मैंने आज तक कभी एक गिलहरी को ज़िंदगी की कशमकश में दुखी होते नहीं देखा.    

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मैंने आज तक कभी दो कुत्तों को फ़लसफ़ों पर जिरह करते हुए नहीं देखा, तीन बिल्लियों को रिश्तों के बेमानी होने का ज़िक्र करते हुए नहीं देखा, चार बंदरों को ‘कोई किसी का नहीं होता’ पर चर्चा करते हुए नहीं देखा, पांच गायों को ‘मेरे साथ ही क्यों’ पर कलपते हुए नहीं देखा.

इन सब जानवरों में ज़िंदगी की तरफ एक ‘स्वीकार भाव’ होता है. ये हर पड़ाव पर तजरबों की पड़ताल नहीं करते. इन्हें भी खुशी होती है, पर ये उस खुशी पर फ़िदा नहीं होते. इन्हें भी ग़म होता है, पर ये ग़मज़दा नहीं होते. माना इंसान सब से आला जानवर है पर कैसा रहे अगर…

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कभी हम थोड़ा कमतर हो कर थोड़ा बेहतर जीने के गुर सीख जाएं.

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असली ‘आप’

न आप जितना दिखाते हैं उतने अच्छे हैं न जितना सोचते हैं उतने बुरे.    

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इंसान को उलझने का शौक होता है, उससे सीधी-सादी ज़िंदगी जीते नहीं बनता क्योंकि उसमें हर बाक़ी शय की तरह उसको अपनी हस्ती क़ुदरत में शामिल होती हुई नज़र आती है. और ये उसे क़तई गवारां नहीं क्योंकि उसके लिए अपने अलग ‘वजूद’ को बनाना ज़िंदगी का मक़सद और उसे सबको बताना जीने का मायना नज़र आता है. इसके लिए वह एक खेल रचता है.

वह कहानियां बनाना शुरु करता है – अपने बारे में. वह ये कहानियां खुद को सुनाता है और फिर दुनिया को. और इतना सुनाता है कि लोगों के साथ उसे खुद भी यक़ीन होने लगता है कि वो कहानियां सच्ची हैं और ‘उनका वह’ असली ‘वह’. पर वह भूल जाता है कि जिस तरह उसकी कहानियों का ‘अच्छा वह’ वह नहीं है, उसी तरह उसकी कहानियों का ‘बुरा वह’ भी वह नहीं है.

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अपनी कहानियों के परे खुद को देखना सीखिए, असली ‘आप’ ‘वह’ हैं.

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असली खेल!

खेल बिसात के इस तरफ भी चल रहा है – खिलाफ नहीं, अंदर.  

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इस खेल में ज़्यादा पेंच हैं और बड़े पैंतरे – कुछ प्यादे हैं जो एक दिन राजा बनना चाहते हैं. वज़ीर राजा से क़ुरबत भी दिखाता है और उससे जलता भी है. एक ऊँट की वफ़ादारी राजा से है लेकिन दूसरा वज़ीर के ज़्यादा नज़दीक है. एक घोड़ा एक चाल में वज़ीर का रास्ता रोक सकता है और दूसरा राजा की नज़र में आने से सिर्फ एक चाल दूर. हाथी कोनों में हैं इसलिए नज़र से दूर अपने मंसूबे बनाते हैं.

ये खेल दिखता नहीं पर चलता रहता है, पूरे वक़्त, अंदर ही अंदर। यहां जो मुहब्बत दिखाता है वो मुक़ाबिल भी है, और जो ख़िदमत में दिखता है वो खिलाफ भी है. इस खेल में मुस्कुराहटों के पीछे मक़सद हैं, और मिलते हुए हाथों में थोड़ी मिलावट भी. लेकिन सब समझदार हैं, इतने कि ये खेल सतह के नीचे रहे और इस तरह से खेला जाए कि ऊपरी खेल से ऊपर ना निकल जाए. पर पता है?

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इस खेल में कोई जीतता नहीं, सब हार रहे होते हैं.

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ख़ास होने की खुजाल

हर आम इंसान में ख़ास होने की अच्छी ख़ासी खुजाल होती है.  

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हरेक को शग़ल है औरों से कुछ अलग होने का, खुद को बेहतर साबित करने का, कुछ नया बनाने का, कुछ हट के करने का, आस पास के लोगों से ज़्यादा ख़ूबसूरत दिखने का, साथ के लोगों से ज़रा बड़ी कामयाबी हासिल करने का, सब से थोड़ा ज़्यादा समझदार माने जाने का, बाकि लोगों से ज़्यादा खुश दिखने का। लेकिन इस पूरे खेल में एक चीज़ आहिस्ता आहिस्ता गलत होने लगती है.

आप के ‘होने’ का पैमाना औरों का ‘ना होना’ होने लगता है और आपके ‘ना होने’ की कसौटी औरों का ‘होना’। उस पर परेशानी ये कि अब सिर्फ ‘होना’ काफी नहीं लगता। इस सब में हम ये भी समझ नहीं पाते कि जब सब ख़ास होना चाह रहे हों, तो आम होना ही ख़ास हो जाएगा ना। क्या समझे! अच्छा अब वो सब छोड़िये, आप तो ये बताइये कि आप ने मेरी कल की तस्वीरें देखीं कि नहीं…

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ख़ास आप के लिए खिचवाईं थीं! 🙂 

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