और फिर एक दिन ऐसा आता है जब आप तबाही पर तुले होते हैं.
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भीतर जैसे लावा फूट रहा होता है – नसों में भरा कर जिस्म को फटने पर मजबूर करने के लिए बेताब. आँखें ऐसे जल रही होती हैं जैसे किसी ने अंगारे भर दिये हों, और ज़ुबान काबू के बाहर हो हैवानियत की हद के आसपास ठहरती, दिलों को छलनी करने को बेचैन.
ऐसा लगता है आसपास की सब चीज़ें उठा कर फेंक दो – फाड़ दो सब, तोड़ दो सब, और टुकड़ों को अपने पैरों तले देर तक रौंदते रहो; हाथ दीवार पर दे मारो या ख़ुद को इंतेहा के परे का दर्द दो. सब ख़त्म कर दो, सब कुछ छोड़ कर भाग जाओ कहीं, बहुत बहुत दूर.
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ये दिन अचानक नहीं आता, आप धीमे धीमे बढ़ रहे होते हैं इसकी तरफ! ख़याल रखिये.